प्रयागराज से एक बड़ी खबर और वहीं के एक निवासी का अनुभव पढ़ने को मिला है। दोनों में एक मुद्दा समान है। खबर का मसला वहां की एक मस्जिद में अजान से लोगों की दिनचर्चा पर विपरीत असर से जुड़ा है। पहले उस बड़ी खबर का ही जिक्र करते हैं।
यूनिवर्सिटी ऑफ इलाहाबाद यानी इलाहाबाद विश्वविद्यालय (संस्था का नाम यही है) की कुलपति प्रोफेसर संगीता श्रीवास्तव ने अपने आधिकारिक लेटरहेड पर पत्र लिखकर जिलाधिकारी से शिकायत की थी। जिसमें कहा गया था कि उनके आवास परिसर के नजदीक वाली मस्जिद से अजान के कारण उनकी नींद टूट जाती है और दिनचर्या बाधित होती है।
कुलपति का निवास नगर के पॉश एरिया सिविस लाइंस में मौजूद है। प्रोफेसर श्रीवास्तव स्वयं कुलपति हैं और उनके पति जस्टिस विक्रमनाथ गुजरात हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हैं। बहरहाल, पुलिस कुछ करे, उसके पहले ही मस्जिद के युवा और पढ़े-लिखे मुतवल्ली कलीमुर्रहमान ने अजान के लिए लगे लाउडस्पीकर की न केवल दिशा बदलवा दी, बल्कि आवाज की तीव्रता भी कम करा दी।
अब दूसरे व्यक्ति का अपना अनुभव। संयोग से एसके यादव उसी विश्वविद्यालय के मीडिया डिपार्टमेंट में पढ़ाते हैं, जहां प्रोफेसर श्रीवास्तव कुलपति हैं। उनका घर प्रयागराज जंक्शन स्टेशन के बाहर उस हिस्से में है, जो हिंदू-मुस्लिम आबादी की दृष्टि से बहुत संवेदनशील माना जाता है। और तो और, उनका परिवार मस्जिद के ही रिहायशी हिस्से में रहता है। वे कहते हैं कि जब से उन्होंने होश संभाला है, ऊपर अजान और नमाज की आवाज के साथ, नीचे उनके घर में पूजा के घंटा-घड़ियाल एकसाथ बजा करते हैं।
विश्वविद्यालय के छात्रसंघ भवन से निकला जुलूस
न कभी आसपास के हिंदू बहुल इलाके में अजान से परेशानी हुई, न नीचे घर में घंटा बजने पर मस्जिद वालों को कोई आपत्ति रही। शायद सभी ने इस माहौल के साथ जीना सीख लिया। आखिर जिस सामासिक संस्कृति की बात होती है, यही तो है। साथ वे इशारा जरूर करते हैं कि उनके बचपन में पिता के साथ मस्जिद से जुड़े चचा जान आदि की दोस्ती का असर अब नहीं रहा। सम्बंधित कमेटी के लोग उन्हें घर से बेदखल करने के लिए कोर्ट की शरण में हैं।
नमाज के साथ पूजा के ऐसे ढेरों उदाहरण सिर्फ प्रयागराज में ही नहीं हैं। यह जरूर है कि अजान से दिनचर्या में खलल की शिकायतें बढ़ी हैं। हलके ही सही, शिकायतें दशहरा आदि पर शोरगुल की भी हो रही हैं। जिस माहौल को लेकर शिकायत है, कहा जा सकता है कि वह आस्था की जगह उसके बढ़ते प्रदर्शन के कारण ही है। तभी शिकायत करने वालों को एक शायर संतोष कुमार की इन पंक्तियों का ध्यान नहीं रहा- मंदिर चुप खड़ा है, बेखबर मस्जिद खड़ी है, फिर क्यों दिलों में नफरत की जिद पड़ी है।
कुलपति की शिकायत पर हलचल हुई। कुछ लोगों ने उनके खिलाफ प्रदर्शन किए। विश्वविद्यालय के छात्रसंघ भवन से भी जुलूस निकला, जिसमें एक साथ टोपी-तिलकधारी छात्र शामिल थे। हम दुआ करें कि गंगा-जमुनी तहजीब कही जाने वाली धरती प्रयागराज से ऐसे माहौल को और अधिक हवा न मिले। ऐसे में बशीर बद्र की लाइनें याद रखनी चाहिए-मंदिर गए मस्जिद गए, पीरों फकीरों से मिलेउस इक को पाने के लिए क्या-क्या किया, क्या क्या हुआ।
आस्था दिखे तो स्वाभाविक ही रहे, प्रदर्शन न लगे
शायर का यह कथन बहुत व्यापक असर रखता है। आज हम ‘क्या क्या किए, क्या क्या हुआ’ पर ही टिक गए हैं। सच यही है कि ‘उस इक’ को पाने का दिखावा अधिक होने लगा है। कह सकते हैं कि भागती दुनिया में रोजमर्रा की चिंता अधिक हो गयी है और इस आपाधापी में लोगों के स्वास्थ्य पर विपरीत असर पड़ रहा है। बाहर मोटर गाड़ियों, ट्रेन और यहां तक कि हवाई जहाजों की ध्वनि तो है ही, सुबह ठीक से जगने के पहले ही किसी भी तरह की तेज आवाज से लोगों में तरह-तरह की शिकायतें बढ़ रही हैं।
चिड़चिड़ापन, आक्रामकता और उच्च रक्तचाप की शिकायतें आम हैं। सुनने की शक्ति में कमी आदि के साथ स्मृति खोना और गंभीर अवसाद जैसी परेशानियां भी इसका कारण बतायी गयी हैं। लोगों ने तंग आकर न्यायालयों के दरवाजे तक खटखटाए। फिलहाल जहां से शिकायत आयी है, वहीं इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक आदेश में कहा था कि रात दस बजे से सुबह छह बजे के बीच कहीं भी तेज आवाज वाले माइक या लाउडस्पीकर नहीं रहेंगे। न्यायालय ने माइक हटाने के लिए तो नहीं कहा परंतु उन्हें एक निश्चित डेसिबल के अंतर्गत ही बजाने की जरूरत बतायी।
प्रश्न है कि जबतक हम स्वयं अपने स्वास्थ्य की चिंता न करें तो कोर्ट कहां तक प्रभावी होंगे। आस्था हमारा मौलिक अधिकार है पर आस्था का प्रदर्शन क्या है, स्वयं सोचना होगा। यह आस्था किसी के जीवन पर खतरा या खलल का सबब तो कदापि न बने। जरूरी नहीं कि किसी की आस्था दिखायी ही दे पर दिखे तो स्वाभाविक ही रहे, प्रदर्शन न लगे।
डॉ. प्रभात ओझा
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