कोलकाता: हम आजादी का 75वां महापर्व मनाने जा रहे हैं। अंग्रेजों की दासता से मुक्त होकर नई पीढ़ी आजाद वातावरण में सांस ले सके, इसके लिए अनगिनत लोगों ने अपनी कुर्बानी दी और कई तो ऐसे थे, जिन्होंने पूरी जिंदगी जेल में गुजार दी। उन्हीं में से एक नाम है Suhasini Ganguly का। क्रांति के आंदोलन के लिए ताउम्र कुंवारी रहीं। जिंदगी जेल में गुजर गई लेकिन अंग्रेजों के अत्याचार के सामने कभी सिर नहीं झुकाया।
जिस तरह से चंद्रशेखर आजाद की पत्नी दुर्गा देवी को क्रांतिकारी दुर्गा भाभी कहकर पुकारते थे, उसी तरह सुहासिनी को दीदी कहते थे। ऐसी गुमनाम नायिका थीं सुहासिनी, जिनके पास अच्छा कैरियर और भविष्य था लेकिन देश पर सब कुछ कुर्बान कर दिया। 03 फरवरी, 1909 को जन्मी Suhasini Ganguly का साहस आज की लड़कियों के लिए प्रेरणा बन सकता है।
Suhasini Ganguly का निजी जीवन
Suhasini Ganguly का जन्म खुलना में हुआ था, ये शहर आज बांग्लादेश का तीसरा सबसे बड़ा शहर है। उनकी पढ़ाई-लिखाई ढाका में हुई। हालांकि उनका पैतृक घर विक्रमपुर के एक गांव में था लेकिन उनको अध्यापिका की नौकरी कोलकाता के एक मूक बधिर बच्चों के स्कूल में मिल गई और करीब 20 साल की उम्र में 1924 में क्रांतिकारियों के शहर कोलकाता आने से उनकी जिंदगी का मकसद ही बदल गया। अपनी नौकरी के दौरान वह उन लड़कियों के संपर्क में आईं, जो दिन भर जान हथेली पर लेकर अंग्रेजी हुकूमत को धूल चटाने के ख्वाब दिल में लिए घूमती थीं।
इनमें से एक थीं कमला दास गुप्ता, एक हॉस्टल की वॉर्डन। उनके हॉस्टल में बम, गोली क्या नहीं बनता था। लडकियों के हाथों में सारे हथियारों की कमान होती थी और इंचार्ज होती थीं कमला दास गुप्ता। दूसरी थीं प्रीति लता वाड्डेदार, प्रीति मास्टर दा सूर्यसेन के क्रांतिकारी गुट की वो वीरांगना थीं, जिनको एक यूरोपीय क्लब पर ये लिखा अखर गया कि ‘इंडियंस एंड डॉग्स आर नॉट अलाउड’।
कई क्रांतिकारियों के साथ उस क्लब पर हमला बोल दिया, अपनी जान गंवा दी लेकिन गोलियों की बौछार कर दी, आखिरकार वो क्लब बंद ही हो गया। एक और थीं बीना दास, जिसने दीक्षांत समारोह में बंगाल के गर्वनर जैक्सन पर एक एक करके भरे हॉल में पांच गोलियां दाग दीं। दिलचस्प बात है कि बीना को भी वो पिस्तौल कमला दास गुप्ता ने ही दी थी। ये सारी लड़कियां ‘छात्री संघा’ नाम का संगठन चलाती थीं।
क्रांतिकारियों के सबसे बड़े संगठन युगांतर से जुड़ गई थीं Suhasini Ganguly
ऐसे में सुहासिनी गांगुली कैसे क्रांति के इस ज्वार से बच पातीं। बताया जाता है कि इन्हीं दिनों खुलना के ही क्रांतिकारी रसिक लाल दास के सम्पर्क में आने से वो क्रांतिकारियों से संगठन जुगांतर पार्टी से भी जुड़ गईं। एक और क्रांतिकारी हेमंत तरफदार के संपर्क में आने से उनके क्रांतिकारी विचार और मजबूत होते चले गए।
उनकी बढ़ती सक्रियता और क्रांतिकारियों से मेलजोल अंग्रेजी पुलिस से छुपा नहीं रह पाया। सुहासिनी और उनके साथियों को भी समझ आ चुका था कि वे पुलिस की नजरों में आ चुके हैं। अब उनकी हर हरकत पर नजर रखी जा रही थी। वो जहां जाती थीं, किसी से भी मिलती थीं, कोई ना कोई उन पर नजर रख रहा होता था।
इधर, जब से चटगांव विद्रोह हुआ था, तब से अंग्रेजी पुलिस को ये बखूबी समझ आ गया था बंगाल में तमाम कॉलेज की लड़कियां व महिलाएं भी क्रांतिकारी संगठनों से जुड़ी हुई हैं। वैसे भी बाघा जतिन की मौत के बाद 12 से 15 साल लग गए थे, दोबारा क्रांतिकारियों को अपना संगठन फिर से मजबूत करने में।
मैडम कामा और श्यामजी कृष्ण वर्मा को पेरिस छोड़ना पड़ गया था
ऐसे में चटगांव विद्रोह के बाद थोड़ा मुश्किल उन सबके लिए हो गया और ज्यादातर क्रांतिकारी उसी तरह कोलकाता से चंदननगर चले गए, जैसे लंदन में मुश्किल होने पर पेरिस चले जाते थे। उस वक्त फ्रांस-इंग्लैंड में अपनी जंग चल रही थी।
जिस तरह फ्रांस और इंग्लैंड में दोस्ती के बाद पेरिस के भारतीय क्रांतिकारियों को मुश्किल हो गई थी, मैडम कामा और श्यामजी कृष्ण वर्मा को पेरिस छोड़ना पड़ गया था। उसी तरह चंदननगर में भी बंगाल के क्रांतिकारियों के लिए मुश्किल हो गई। फ्रांसीसी आधिपत्य वाले चंदननगर में Suhasini Ganguly भी चली गईं और क्रांतिकारी शशिधर आचार्य की छदम धर्मपत्नी के तौर पर रहने लगीं। वहां उन्हें स्कूल में नौकरी भी मिल गईं।
सभी क्रांतिकारियों के बीच वो सुहासिनी दीदी के तौर पर जानी जाती थीं। हर वक्त हर एक की हर समस्या के समाधान के साथ उपलब्ध रहने वाली दीदी। बिलकुल भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू की दुर्गा भाभी की तरह। क्रांतिकारियों के नेटवर्क व संगठन को परदे के पीछे चलाने में उनका बड़ा हाथ रहता था। उन पर कोई आसानी से शक भी नहीं करता था।
क्रांतिकारियों के लिए ठिकाना था उनका घर
उनका घर क्रांतिकारियों के लिए उसी तरह से ठिकाना बन गया था, जैसे भीकाजी कामा का घर कभी सावरकर के लिए था। हेमंत तरफदार, गणेश घोष, जीवन घोषाल, लोकनाथ बल जैसे तमाम क्रांतिकारियों को समय समय पर पुलिस से बचने के लिए उनकी शरण लेनी पड़ी। इंग्लैंड- फ्रांस की दोस्ती ने उनके लिए भी मुश्किलें पैदा कर दीं।
अंग्रेजी पुलिस अब चंदननगर की गलियों में भी अपना जाल बिछाने लगी और उनके निशाने पर आ गईं Suhasini Ganguly भी। एक दिन पुलिस ने छापा मारा, आमने सामने की लड़ाई में जीवन घोषाल मारे गए, शशिधर आचार्य और सुहासिनी को गिरफ्तार कर लिया गया और 1938 तक कई साल उन्हें हिजली डिटेंशन कैम्प में रखा गया। दिलचस्प बात है कि आज इस कैम्प की जगह पर खड़गपुर IIT का कैम्पस है।
जुगांतर पार्टी के कुछ सदस्य कांग्रेस में, कुछ कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए और बाकियों ने अपनी अलग अलग राह पकड़ीं। सुहासिनी को भी कम्युनिस्ट पार्टी में किसी ने जोड़ दिया लेकिन जब 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्ट पार्टी ने हिस्सा नहीं लिया तो वो पूरी तरह सहमत नहीं थी और आंदोलन में सक्रिय हेमंत तरफदार की सहायता करती रहीं और खुद भी चुपके से आंदोलन में सक्रिय रहीं, हेमंत को शरण भी दी।
इसी आरोप में उनको भी गिरफ्तार करके 1942 में जेल भेज दिया गया। 1945 में बाहर आईं तो हेमंत तरफदार धनबाद में एक आश्रम में रह रहे थे, वो भी उसी आश्रम में जाकर रहने लगीं।
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चमक-दमक से थीं दूर, केवल एक तस्वीर है मौजूद
हमेशा खादी पहनने वाली सुहासिनी आध्यात्मिक विचारधारा की थीं। देश को आजाद करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। उनके संपर्क में इतने क्रांतिकारी आए, जो उनके व्यक्तित्व से काफी प्रभावित भी थे। एक की वो छद्म पत्नी तक बनकर रहीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपने परिवार, अपनी जिंदगी के बारे में नहीं सोचा, यहां तक कि देश की आजादी के बाद भी नहीं।
कैमरे से भी वो काफी दूर रहती थीं, उनकी एकमात्र तस्वीर मिलती है, जो शायद किसी ने उस वक्त चुपचाप खींची होगी, जब वो आश्रम में ताड़ के वृक्षों के बीच ध्यान मुद्रा में तल्लीन थीं, आंखें बंद थीं। आजादी के बाद उन्होंने अपना सारी जीवन सामाजिक, आध्यात्मिक कामों में ही लगा दिया।
कोलकाता में हो गया था एक्सीडेंट, मिली गुमनाम मौत
मार्च 1965 की बात है, एक दिन जब वो कहीं जा रही थीं तो रास्ते में उनका एक्सीडेंट हो गया। उनको कोलकाता के पीजी हॉस्पिटल में भर्ती करवाया गया। आजादी के बाद देश क्रांतिकारियों से ज्यादा ताकतवर नेताओं का दीवाना हो चुका था। उनके इलाज में लापरवाही बरती गई।
नतीजतन, वह बैक्टीरियल इन्फेक्शन का शिकार हो गईं और 23 मार्च, 1965 को स्वर्ग सिधार गईं। उसी दिन जिस दिन भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी पर लटकाया गया था। हर साल 23 मार्च को शहीद दिवस मनाया जाता है और भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को तो याद किया जाता है लेकिन सुहासिनी को कोई याद नहीं करता।