भारत की GDP को मजबूत बनाने में सेवा क्षेत्र का 53% योगदान है। ऐसे में सेवा क्षेत्र के महत्वपूर्ण व्यक्तियों का इसमें अहम किरदार है जिनमें रतन टाटा, बिड़ला ग्रुप तथा अज़ीम प्रेमजी का नाम शुमार है, जिसमे ज़रूरतमंदों के लिए अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन चर्चा जोरों है।
बात करते है अज़ीम प्रेमजी के शुरुआती दिनों के बारे में तो इनका जन्म 24 जुलाई 1945 मुंबई के बहुत ही समृद्ध परिवार में हुआ था। इनकी स्कूली पढ़ाई सेंट मैरी से हुई और कालेज अमेरिका से स्टैंडफोर्ड यूनिवर्सिटी जहाँ से वह मैकीनिक्ल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे।
इनके पिताजी मोहम्मद हाशिम प्रेमजी ने “वेस्टर्न इंडियन वेजिटेबल प्रोडक्ट ऑर्गनाइज़ेशन” यानी WIPRO की स्थापना की। तब यह कम्पनी साबुन, तेल तथा अन्य वस्तु बेचा करती थी। वहीं इनकी माताजी एक डॉक्टर हैं और कैंसर पीड़ितों का इलाज करती हैं तथा ज़रूरतमंदों के लिए मुफ्त इलाज की सुविधा भी देती हैं।
जब इनकी उम्र 21 वर्ष की थी तब इनके पिताजी का देहांत हो जाता है और वह तुरन्त अपनी पढ़ाई छोड़ अमेरिका से वापस भारत आ जाते हैं और अपने बिजनेस को सँभालते हैं। साथ ही 1999 में डिस्टेन्स लर्निंग के ज़रिये उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की।
मगर 1966 में उनके द्वारा बिजनेस को सँभालते ही वह विप्रो की दिशा ही बदल देते हैं जिसका नतीजा आज हम सभी के सामने है। वर्तमान में यह बिजनेस टाइकून, इन्वेस्टर तथा WIPRO कम्पनी के चेयरमैन हैं और इन्होंने लाखों लोगों को रोज़गार दिए हैं।
साथ ही कोरोना वायरस की महामारी के बीच 7,904 करोड़ रुपए दान दिए हैं यानी 22 करोड़ प्रतिदिन और हज़ारों लोगों को मौत के मुँह से बाहर निकाला है। इसके अलावा कम्पनी के मुनाफे में से 34% समाज सेवा में यह दान करते हैं। वहीं फोर्ब्स के मुताबिक भारत के यह दूसरे सबसे धनी व्यक्ति हैं।
IT सेक्टर में कैसे आई WIPRO?
साबुन, तेल, बेकरी इत्यादि जैसी वस्तुओं का उत्पादन विप्रो में होता था जो कि शानदार चल रहा था। मगर अज़ीम प्रेमजी जान गए थे कि अगर आईटी सेक्टर में विप्रो आ जाए तो उनकी कम्पनी और आगे जा सकती है और तब उन्होंने इस सेक्टर में हाथ आज़माया।
शुरुआत में अमेरिका की सेंटिनल कम्पनी के साथ मिलकर मिनी कम्प्यूटर बनाने की शुरुआत की और उसके बाद साफ्टवेयर भी बनाने लगे। उस वक्त विप्रो एक मात्र भारतीय कम्पनी थी जो “IT सेक्टर” में कार्य कर रही थी और 1990 में विप्रो कामयाबी के चरम पर थी और उस वक्त अज़ीम प्रेमजी काफी धनवान हो चुके थे।फिलहाल 67 देशों में विप्रों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया है और 35 बिलियन इसकी मार्केट कैपिटल है।
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कैसे हुई अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन की शुरुआत?
अज़ीम प्रेमजी ने काफी धन कमा लिया जिसके चलते उन्होंने सोचा कि अब ज़रूरतमंदों की मदद करने का समय आ गया है और इसी वजह से अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन की स्थापना वर्ष 2001 में होती है। प्रेमजी का यह मानना है कि भारत में अभी भी एजुकेशन सिस्टम में बहुत सुधार की ज़रूरत है।
प्राइवेट स्कूल तो बेहतर कर रहे हैं पर वह अधिकतर शहर में ही हैं। ऐसे में 60% जनसँख्या जो कि गांव में रहती है उन बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों से सही पढ़ाई नहीं हो पा रही है जिससे हमारे एजुकेशन सिस्टम पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
यदि यहाँ भी सही ढंग से बच्चों को पढ़ाया जाए तो हिंदुस्तान का आने वाला कल बेहतरीन हो सकता है। इसी दिक्कत को देखते हुए वर्ष 2009 में एजुकेशन पर अज़ीम प्रेमजी ने “21 बिलियन डॉलर” लगा दिए ताकि भारत के बच्चों को पढ़ने की अच्छी सुविधा मिल सके।
फिलहाल अभी कुछ गाँव में स्कूल बनाने की प्रक्रिया चल रही है तो कुछ जगहों में बनकर तैयार है। प्रेमजी ने यह ठान लिया है कि हिंदुस्तान के एजुकेशन सिस्टम को सुधारना ही है ताकि भारत के बच्चों का भविष्य बेहतर हो सके।
अज़ीम प्रेमजी की निजी ज़िन्दगी के बारे में:
प्रेमजी की शादी यास्मीन प्रेमजी के साथ हुई है तथा दो बेटे हैं और दोनों ही विप्रो में कार्यरत हैं। इनको 2005 में “पद्म भूषण” तथा 2011 में “पद्म विभूषण” पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
इन सबके बीच हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद मोहम्मद अली जिन्ना ने प्रेमजी के पिताजी मोहम्मद हाशिम प्रेमजी को पाकिस्तान में आने तथा अपना बिजनेस यहीं स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था।
जिसके जवाब में हाशिम प्रेमजी ने उनका प्रस्ताव ठुकराते हुए कहा था कि पाकिस्तान भी तो भारत से निकला है और मैं हिंदुस्तान में रहकर ही अपने बिजनेस को आगे बढ़ाने का कार्य करूँगा।
वहीं एक इंटरव्यू के दौरान अज़ीम प्रेमजी ने अपनी सफलता का राज़ बताते हुए कहा था कि यदि अपने कारोबार को आगे बढ़ाना है तो अपने सभी कर्मचारियों के आइडिया लेना बेहद ज़रूरी है क्योंकि तभी कम्पनी में एकता की भावना जागेगी।
साथ ही यदि कोई व्यक्ति अपने बिजनेस में विफल होता है तो उसे हताश होने के बजाए वापस से दोबारा शुरुआत करनी चाहिए क्योंकि सफल होने के लिए असफलता एक साधन है। बहरहाल, वर्तमान में इनका सारा ध्यान समाज सेवा की ओर है। यही उम्मीद है कि प्रेमजी ने जो बदलाव की शुरुआत की है उसमें वह जल्द ही कामयाब होंगे।
-यशस्वी सिंह