10.1 C
New Delhi
January 2, 2025
Dustak Special

क्या विमान हादसे में जिंदा बच गए थे नेता जी सुभाष चंद्र बोस ?

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की लौ को जलाए रखने के लिए सैकड़ो जाबांजो ने आहुति दी थी। उसी में से एक नाम था नेता जी सुभाष चंद्र बोस का। इतने विशाल व्यक्तित्व को चंद शब्दो मे समेट पाना किसी भी लेखक के लिए तो लगभग असंभव सा कार्य है।

परंतु जैसे तेल और पानी को आपस मे जितना भी घोल दिया जाए, तेल ऊपर आ ही जाता है ठीक वैसे ही इतिहास के पन्नो को टटोलने पर वो सार ऊपर छोड़ ही जाता है। बस इसी को मुख्य पटल पर लाकर हमने समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी की है।

सुभाष चंद्र बोस

इतिहास के पन्नो में जीवित सुभाष चंद्र बोस

इतिहास के पन्नो को थोड़ा और पीछे टटोलते हैं और चलतें है 19वीं सदी के अतिंम और 20 वीं सदी के शुरुआती दौर में। जहां भारत के एक वीर सपूत ने अपनी पहली सांस ली। साल 1897 में कटक उड़ीसा में प्रभवति और जानकीनाथ दत्त के परिवार में उनकी 9वीं संतान ने जन्म लिया जिसका नाम था ‘सुभाष’। सुभाष चंद्र बोस असल मायने में सच्चे देशभक्त थें। राष्ट्रवाद का असल मतलब अगर किसी को जानना हो तो सुभाष चंद्र बोस को पढ़ें।

उनकी आत्मकथा (इन इंडियन पिलग्रिम – अपूर्ण) में उन्होंने ख़ुद इस बात का जिक्र किया है कि वो अंग्रेजी हुकूमत के अंतर्गत उस वक़्त देश की सबसे उच्च प्रशासनिक सेवा में चयनित हुए थे और सिर्फ चयनित ही नही बल्कि उन्होंने परीक्षा में चौथा पायदान हासिल किया था लेकिन उन्होंने ब्रितानियों के अधीन नौकरी को लात मार, देश को आज़ादी दिलाने का बीड़ा उठाया।

netaji

शुरू से ही उनमे रिबिलिएन्स एटीट्यूड ने घर कर लिया था और यहीं सबसे बड़ा भेद था गांधी और बोस में। महात्मा गांधी शांति के मार्ग पर चल कर आज़ादी पाना चाहतें थे तो वहीं बोस साम, दाम, दंड और भेद के साथ ही साथ हर दाव आजमाने को तैयार बैठे थे।

इतिहासकार भी मानतें है कि “खड़क बिना ढाल वाली आज़ादी” की बात

साल 1947 में भारत की आज़ादी के समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट रिचर्ड एटली थें। जो कि साल 1956 में पहली बार भारत आये थे। उस वक़्त भारत के गवर्नर फणीभूषण चक्रवर्ति ने उनकी मेहमान नवाज़ी की थी।

बातों बातों में चक्रवर्ती ने एटली से यूं ही पूछ लिया था कि “आपको क्या लगता है भारत को आज़ादी दिलाने में महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आंदोलनों की कितनी भूमिका रहीं होगी” आपको जानकर हैरानी होगी कि इसके जवाब में  एटली ने हँसकर कहा था “मिनिमल” यानी कि बहुत ही कम….

एटली का जवाब तर्कहीन नही था क्योंकि द्वितीय विश्वयुद्द के बाद दो खेमो में बेटी एक्सिस और एलाइंस  पावर के पास इतना साहस नही था कि वो किसी दूसरे राष्ट्र पर शासन कर सकें। इसीलिए तो ब्रितानियों ने 1946 में जॉर्डन और 1947 में फिलिस्तीन से विदाई ले ली थी, तो वहीं श्रीलंका और म्यांमार को 1948 में अपने -अपने देशों की कमान शौप दी गयी। मिश्र भी पीछे नही रहा मात्र 34 साल परतंत्र रहने के बाद 1952 में उसे भी आज़ाद कर दिया गया साथ ही मलेशिया भी 1957 में स्वतंत्र हो गया।

Subhas-Chandra-Bose-Smiling

ब्रिटेन के तर्ज पर ही फ्रांस ने लाओस, कंबोडिया और वियतनाम से अपना बोरिया – बिस्तर समेत कर वापस जाना ही बेहतर समझा। अब ऐसे में एक सवाल उठना जायज है कि अगर इन देशों को आज़ादी मिली तो कैसे मिली?? यहां कोई महात्मा गांधी तो थे नही ??

इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग इस बात पर सहमति जताता है कि ये देश आजाद हुए नही थे, बल्कि इन्हें आज़ाद किया गया था। अब यहां इनडायरेक्टली कहा जाए तो हिटलर और नाज़ियों का उदय या फिर पनपते हुए आंदोलन की आग को एक कारण मांन सकतें हैं।

खैर भारत की आज़ादी से पहले और बाद में अगर ब्रितानियों को किसी एक आदमी से खतरा था तो वो नाम था ‘सुभाष चंद्र बोस’ क्योंकि ये बात एटली ने खुद अपने मुंह से कबूल की थी। बोस की आज़ादी पाने का अंदाज आंदोलन कम बल्कि राजनीति ज्यादा थी और राजनीति में भी वह नीति जिसे हम चाणक्यनीति कहतें। यहां सिर्फ रिजल्ट मैटर करता था और कुछ भी नहीं…

आज़ाद हिंद फौज़ का गठन

बोस, दुश्मन के दुश्मन को दोस्त समझते थे। इसी कारण उन्होंने जर्मनी और जापान से दोस्ती की। इसके बाद उन्होंने कुछ समय के लिए एक्टिव पॉलिटिक्स भी जॉइन की। लेकिन सुभाष चंद्र बोस को भारतीय कांग्रेस की नीति रास नही आई और मोहभंग होने तक अंग्रेजो ने उन्हें 11 बार जेल भेजा।

अंग्रेजो की मंशा को बोस समझ चुके थे इसीलिए उन्होंने अपने भाई के साथ मिल कर देश से बाहर निकलने की रणनीति बनाई। वे अफगानिस्तान के रास्ते रूस पहुँचे। जहां जोसेफ स्टालिन से उनकी मुलाकात हुई।गर्म जोशी से हुई इस मुलाकात के बाद बोस, स्टालिन की मदद से जर्मनी पहुँचे। जहां हिटलर से उनकी मुलाकात हुई।

आजाद_हिन्द_फौज

खैर इस मुलाकात के बाद हिटलर की मदद से बोस ने द्वितीय विश्व युद्ध मे भारत की तरफ से लड़ रहे घायल सैनिको को मिलाकर एक लंबी चौड़ी सशस्त्र सैन्य संगठन का गठन किया। जिसका नाम “आज़ाद हिन्द फौज़” या इंडियन नेशनल आर्मी (INA) रखा गया।

कहा जाता है कि इस फौज़ में कुल पचपन हज़ार सशस्त्र सैनिक शामिल थे। बर्लिन की ही एक सभा मे सुभाष चंद्र बोस को “नेता जी” की उपाधि से अलंकृत किया गया। देश के बाहर इतना सब कुछ हो रहा था और देश के भीतर यहां नेहरू, गांधी और उनके साथ ही अंग्रेज इस चिंता में मशगूल थे कि सुभाष चंद्र बोस आखिर गये तो कहां गए?

(नेता जी की ये बहुत मजेदार आदत थी कि उन्हें अंडरग्राउंड होना आता था। यहीं पितरत उनकी मृत्यु को भी एक राज में तब्दील कर चुकी है जिससे पर्दा उठाना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए असंभव है।) खैर, अब समय था देश के सामने आने का। बर्लिन के ही एक रेडियो स्टेशन के माध्यम से बोस ने भारत में रह रहे लोगों को आह्वान करते हुए कहा कि “मैं सुभाष चंद्र बोस बोल रहा हूं और मैं जिंदा हूं”।

Subhash-Chandra-Bose-Adolf-Hitler

सुभाष चंद्र बोस का एक्शन प्लान और हिटलर की मौत

रणनीति बहुत बन गयी अब एक्शन की बारी थी। बोस ने ब्रिटेन के दुश्मन जापान की ओर रुख किया। जापान ने बोस के आगमन को स्वीकारा और बड़े भाई की भूमिका निभाते हुए भारत से ब्रितानियों को खदेड़ने का पूरा मैप तैयार किया। साथ ही साथ बोस ने आज़ाद हिंदुस्तान का रोड मैप तक तैयार कर लिया था।

पर इस बार किस्मत ने साथ नही दिया वक़्त से पहले बारिश और द्वितीय विश्व युद्ध लड़ रहे जापानी सैनिक को ब्रिटेन के सैनिकों द्वारा मुँह की खानी पड़ी। जापान अब बैकफुट पर था। बोस को रणनीति पर विराम लगाना पड़ा।

कुछ ही समय बाद 13 अप्रैल 1944 को हिटलर ने आत्महत्या कर ली और नाज़ियों ने 1945 में आत्मसमर्पण कर दिया। इधर अमेरिका ने जापान के दो मुख्य शहर हिरोशिमा और नागाशाखी पर परमाणु बम गिरा दिया युद्ध विराम हुआ। इस वक़्त बोस सिंगापुर में थे। सुभाष चंद्र बोस की मौत आज भी एक रहस्यमई घटना है।

युद्ध विराम हो चुका था। सुभाष चंद्र बोस सिंगापुर से बैंकॉक आए जहां उनकी मुलाकात जापान के प्रमुख हैचिया तरुहू से हुई। उन्होंने बोस को जापान की पूरी स्थिति बताई और कहा कि उन्हें आज़ाद हिंद फौज के लिए कोई दिशानिर्देश नही मिले हैं।

इस मीटिंग के बाद बोस के करीबी रहे कर्नल हबीबुर रहमान बतातें हैं कि बोस उस रात सो नही पाएं थे। दूसरे दिन यानी कि 17 अगस्त 1945 को बोस एनआईए के विमान में बैठ कर वियतनाम के होचिंमिहा नाम के शहर पहुँचे। यहां से आगे का रास्ता बोस को एक जापानी विमान में तय करना था। जिसमे उनके साथ कर्नल हबीबुर रहमान भी थें।

(इसके आगे की कहानी क्या थी और क्या नही इसकी पुष्टि हम नही करतें लेकिन अभी तक ज्ञात दस्तावेज़ों, जांच एजेंसियों और उनके साथियों की कही बातों के अनुसार)

sc-bose-quote

दस्तावेजो के अनुसार सुभाष चंद्र बोस की कहानी

19 अगस्त 1945 को बोस ताइवान के शहर ताइपे पहुँचतें है। कुछ देर वहां ठहरने के बाद जैसे ही उनका विमान रनवे पर दौड़ता है तो 35 मीटर की ऊँचाई पर पहुँचतें ही विमान का अगला हिस्सा उससे अलग हो जाता है। प्लेन क्रैश हो जाता है। दोनो पायलेट की मौत हो जाती हैं।

इस दुर्घटना में कर्नल हबीबुर रहमान बुरी तरह जख्मी हो जातें है और वो देखतें हैं कि बोस बुरी तरह से जल चुके हैं उन्हें अस्पताल लाया जाता है जहां उनकी मृत्यु हो जाती है। ऐसा कर्नल रहमान का कहना है उन्होंने तो यहां तक कहा है कि उस रात बोस की चिता के सामने उन्होंने घंटो बिताया। लेकिन सच क्या था इसका कोई आता पता नही क्योंकि बोस के पार्थिव शरीर की न तो कोई फ़ोटो दुनिया के सामने आयो और न ही कोई पुख्ता सबूत।

कुछ सालों बाद जापान के एक अधिकारी ने आजाद हिंद फौज के अन्य अधिकारियों से मिल कर एक बात बताई जिसको सुन भारत समेत दुनिया के अन्य राष्ट्रों में भी हड़कंप मच गया। उस जापानी अधिकारी ने कहा था कि “बोस के संदर्भ में कर्नल रहमान ने जो कुछ भी बताया है उस पर विश्वास मत करना”

फिर क्या था अमेरिका, ब्रिटेन समेत अन्य देशो ने जांच शुरू की उन्हें डर था कि अगर बोस ज़िंदा बच गए हों और वापस आकर रण छेड़ किया तो दिक्कत हो जाएगी।

Netaji-Subhash-Chandra-Bose

मुखर्जी कमीशन का गठन

जांच पर जांच बैठाई गई बहुत से सबूत हाथ लगे। काल चक्र का पहिया बढ़ रहा था। तभी लखनऊ के इटावा में गुमनामी बाबा के नाम से मशहूर भगवान दास के नेता जी होने के सबूत मिले। साल 1985 सितंबर महीने में गुमनामी बाबा की मौत हो गयी। राज और गहरा गया।

साल 1999 में मुखर्जी कमीशन का गठन हुआ और ताइवान जाकर जांच एक बार फिर शुरू हुई। जांच में सामने निकल कर आया कि साल 1945 में ताइवान के आस पास किसी भी तरह के विमान हादसे की घटना हुई ही नही थी।

तो आखिरकार सच था क्या? इस बात का पता लगाने के लिए इतिहासकार पन्ने उलट रहें है, अभिलेखागारों को खंगाला जा रहा है, इंटेलिजेंस ब्यूरो अपना माथा पटक रहीं है, सरकारें तमाशा देख रही है और हम जैसे बुद्धिजीवी लोग मुखदर्शक बनें हुए हैं। लेकिन सच क्या है इसका कोई नामों निशान तक नही। कुछ बातों का पता काल के गर्त में छिपा होता है जिसे वहां से निकाल पाना मुश्किल ही नही नही लगभग असंभव हैं।

गरिमा सिंह (दिल्ली विश्वविद्यालय)

यह भी पढ़ें: जीवन परिचय : माधव गोविंद वैद्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रवक्ता

Related posts

Surekha Sikri: अभिनय की दुनिया में महिला सशक्तिकरण का उदाहरण

Buland Dustak

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपतियों का इतिहास व उनसे जुड़े कुछ रोचक तथ्य

Buland Dustak

महिला दिवस: साहस और स्नेह का मिला जुला स्वरूप है औरत

Buland Dustak

‘कोरोना वेस्ट मटेरियल’- पर्यावरण के लिए खतरे की घंटी हो रहा साबित

Buland Dustak

अयोध्या धाम से रामेश्वरम तक, 8 रामायण स्थलों का वास्तविक जीवन में भ्रमण

Buland Dustak

15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस – भारत की आज़ादी का सफर

Buland Dustak