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August 18, 2025
विचार

क्या अब देश को ‘समान नागरिक संहिता’ की ज़रूरत है?

इस बार मानसून सत्र के आते ही “समान नागरिक संहिता” एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है। ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि समान नागरिक संहिता कानून बनाने को लेकर सदन में चर्चा हो सकती है और अब दिल्ली हाईकोर्ट की तरफ से भी कह दिया गया है कि इस कानून की आवश्यकता देश को है और इसे लागू करने का यह सही समय है। ऐसे में उम्मीद यही है कि सरकार इस कानून को पूरे भारत में जल्द से जल्द लागू करने के लिए कुछ ठोस कदम उठा सकती है।

समान नागरिक संहिता

क्या है “समान नागरिक संहिता”?

भारत में अलग-अलग धर्म के लोग मौजूद हैं जैसे हिन्दू, मुस्लिम, सिख इत्यादि। अगर इन सब में से कोई भी धर्म का व्यक्ति अपराध करता है तो सज़ा सबको बराबर ही मिलेगी, चाहे वो किसी भी धर्म का हो। लेकिन यदि कोई हिन्दू व्यक्ति हो या ईसाई, यदि वह शादी करता हो,तलाक लेता हो या फिर कोई अन्य मामला हों, ऐसे में कानून सभी धर्मों के हिसाब से अलग-अलग हैं।

इसी वजह से यह जो भिन्न-भिन्न धर्मों के अपने जो व्यक्तिगत कानून हैं, उन्हें एक में मिलाकर “समान नागरिक संहिता का नाम दिया जाए, ऐसी चर्चाएं चल रही हैं। कुछ महीनों पहले इस बिल को दो बार राज्य सभा में “प्राइवेट मेंबर बिल” के रूप में प्रस्तावित किया गया था,

लेकिन दोनों ही बार विपक्ष ने इसका विरोध किया जिसके चलते इस मामले में कुछ नई कार्यवाही नहीं हो रही थी। मगर एक बार फिर से इसे लेकर माहौल गर्मा गया है और अनुमान है कि मानसून सत्र में हमें एक बार पुनः ये बिल देखने को मिले।

क्या इससे पहले भी कभी समान नागरिक संहिता की चर्चा हुई थी?

ऐसा नहीं है कि यह सब पहली बार हो रहा है। इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो पाएंगे कि साल 1835 में “द्वितीय लॉ कमीशन रिपोर्ट” में इसका ज़िक्र हुआ था। इसमें कहा गया था कि आपराधिक मामलों में एक कानून होना अनिवार्य है और वह सभी पर लागू होगा।

लेकिन यह अलग-अलग धर्मों के उनके व्यक्तिगत कानून पर लागू नहीं किया जाएगा। ऐसा इस लिए किया गया क्योंकि भारत में उस वक्त “ईस्ट इंडिया कम्पनी” थी और भारत के धार्मिक मामलों में वह नहीं पड़ना चाहती थी। उसे बस अपने व्यापार से मतलब था।

इसके बाद 1858 में जब सत्ता पर ‘महारानी विक्टोरिया‘ थीं तब उनका कहना था कि वे हिंदुस्तान के धार्मिक मामलों में कोई भी दख़लअंदाज़ी नहीं करेंगी। ब्रिटिश सरकार की इस नीति के पीछे दो वजह थी, पहला 1857 की क्रांति और दूसरा उसे भारत में सिर्फ अपना मुनाफा देखना था।

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हिन्दू कोड बिल

हिन्दू कोड बिल क्या है?

आज़ादी से पहले 1941 में “बी•एन• राव कमेटी” कमेटी का गठन किया गया जिसे हम “हिन्दू कोड बिल” के नाम से भी जानते हैं। इस कमेटी के द्वारा कहा गया कि एक ऐसा कानून लाया जाए जो सबके लिए बराबर हो और महिलाओं को भी समान अधिकार मिले। तभी 1952 में हिन्दू कोड बिल का प्रस्ताव सदन में रखा गया जिसका काफी विरोध हुआ लेकिन अंत में यह बिल चार भागों में पास हो गया।

बिल के चार भाग कुछ इस प्रकार हैं:
  1. हिन्दू विवाह अधिनियम 1955
  2. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956
  3. हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम 1956
  4. अंत में हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम 1956

अब प्रश्न यह भी है कि ऐसा कोड बिल सिर्फ हिंदुओं के लिए ही क्यों लाया गया? ऐसा ही कोड बिल अन्य धर्मों के लिए भी लाना चाहिये था ताकि उस धर्म की महिलाओं को भी उनके हक का सम्मान और अधिकार मिल सके।

इसका जवाब जी• आर• राजागोपाल जो कि बी•आर• अम्बेडकर के सहकर्मी थे, उन्होंने दिया है और कहा था कि अगर यह कानून सफल हो जाता है तो दूसरे धर्म भी इसे लेकर सजग हो जाएंगे और तब वह खुद कहेंगे कि हमें अपने धर्म के “व्यक्तिगत कानून” में बदलाव करने की ज़रूरत है जो महिलाओं को समाज में समान अधिकार दिलाए।

इसी वजह से सिर्फ हिन्दू कोड बिल को लाया गया। लेकिन कुछ सालों बाद इस कोड बिल का भी जमकर विरोध होने लगा और यहाँ से नींव पड़ती है “समान अधिकार संहिता” की।

संविधान में समान अधिकार संहिता कैसे आया?

जवाहर लाल नेहरू इस पर कानून बनाने में दिलचस्प थे लेकिन उन्होंने पहले हिन्दू कोड बिल को लाया। इसके बाद उन्होंने अनुच्छेद 44 के तहत समान अधिकार संहिता को “राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों” (डीपीएसपी) के तहत शामिल कर लिया।

ऐसा इस लिए किया गया ताकि आने वाले समय में कभी परिस्थिति बने तो इस पर कानून बनाया जा सके। शाह बानो के मामले ने इस पर कानून बनाने का ज़ोर दिया। जैसा कि पहले ही ज़िक्र किया गया था कि, महिलाओं को आगे लाने के लिए उनके धर्म के व्यक्तिगत कानून हैं उसमें कुछ फेरबदल की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

1985 में शाह बानो मामला सामने आता है जिसमें उनके पति ने उनसे तलाक ले लिया था। जैसा कि कानून है कि तलाक के बाद पति को अपने बच्चों और उनकी माता के रखरखाव के लिए आर्थिक मदद करनी होती है। लेकिन यह धनराशि 500 रुपए निर्धारित थी जो कि उस वक्त के हिसाब से ठीक थी लेकिन वर्तमान में इसका कोई अधिक महत्व नहीं था।

दंड प्रक्रिया संहिता के सेक्शन 125 को मुस्लिम महिलाओं के लिए कर दिया निष्क्रिय

मामला सुप्रीम कोर्ट तक जाता है और फिर इनके द्वारा यह कहा जाता है कि समान अधिकार संहिता की ज़रूरत अब देश को है, उसे सरकार जल्द लागू करे। कोई भी धर्म का समुदाय आगे आकर इस पर कदम नहीं उठाएगा। ऐसे में केंद्र सरकार के पास पूरा हक है कि वे इस पर कानून बनाए और अगर संविधान का कुछ मतलब रखना है तो इस पर शुरुआत करनी होगी।

इस प्रकार से राजीव गांधी सरकार को कुछ बड़े कथन सुप्रीम कोर्ट के द्वारा कहे गए। इस मामले के बाद राजीव गांधी सरकार ने एक एक्ट पास किया जिसमें सुप्रीम कोर्ट के द्वारा कहे गए सारे कथन को अमान्य करार दिया और “दंड प्रक्रिया संहिता” के सेक्शन 125 को मुस्लिम महिलाओं के लिए निष्क्रिय कर दिया।

तत्पश्चात इस एक्ट के विरुद्ध काफी विरोध हुआ। वर्तमान में इस पर कानून को लेकर क्या स्थिति है? 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने फिर केंद्र सरकार से कहा था कि संविधान को इस कानून की आस है। साथ ही बीजेपी के घोषणापत्र में भी इस पर कानून बनाने को लेकर ज़िक्र किया गया था और अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि शायद हमें भारत में “एक देश एक कानून” की व्यवस्था जल्द देखने को मिल सकती है।

-यशस्वी सिंह

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