उत्तर प्रदेश के प्रमुख औद्योगिक शहर कानपुर में राज्य पुलिस के एक डीएसपी समेत आठ जवानों का गुंडागर्दी का शिकार होकर शहीद होना चीख-चीखकर कह रहा है कि देश में खाकी का भय खत्म होता जा रहा है। कानपुर न तो कश्मीर है और न ही नक्सल प्रभावित इलाका। इसके बावजूद रात में बदमाशों की फायरिंग में आठ जवानों के मारे जाने से बहुत से सवाल खड़े हो रहे हैं। शहीद हुए पुलिस वाले हिस्ट्रीशीटर विकास दूबे को गिरफ्तार करने गए थे। उसके बाद वहां जो कुछ हुआ वह सबको पता है। विकास दूबे और उसके गुर्दे अब बचेंगे तो नहीं। लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि अचानक से पुलिस पर हिंसक हमले क्यों बढ़ रहे हैं?
मौजूदा कोरोना काल के दौरान भी पुलिस पर हमले हो रहे हैं। जबकि देशभर में पुलिस का अति संवेदनशील और मानवीय चेहरा उभरकर सबके सामने आया है । कुछ समय पहले पंजाब में एक सब इंस्पेक्टर का हाथ काट दिया गया था। उसका आरोप यह था कि उसने पटियाला में बिना पास के सब्जी मंडी के अंदर जाने से कुछ निहंगों को रोका था। रोका इसलिए था क्योंकि तब कोरोना के संक्रमण चेन को तोड़ने के लिए सख्त लॉकडाउन की प्रक्रिया चल रही थी । बस इतनी सी बात पर निहंगों ने उस पुलिस कर्मी का हाथ ही काटकर अलग कर दिया था। हमलावर निहंग हमला करने के बाद एक गुरुद्वारे में जाकर छिप गए थे। गुरुद्वारे से आरोपियों ने फायरिंग भी की और पुलिसवालों को वहां से चले जाने के लिए कह रहे थे। खैर, उन हमलावर निहंगों को पकड़ लिया गया था। पर जरा उन हमलावरों की हिम्मत तो देखिए। कुछ इसी तरह की स्थिति तब बनी थी जब पीतल नगरी मुरादाबाद में कोरोना रोगियों के इलाज के लिए गए एक डॉक्टर पर उत्पाती भीड़ द्वारा सुनियोजित हमला बोला गया। उस हमले में वह डॉक्टर लहू-लुहान हो गये थे । उनके खून से लथपथ चेहरे को सारे देश ने देखा था ।
सोचने वाली बात यह है कि अगर पुलिस का भय आम आदमी के जेहन से उतर गया तो फिर बचेगा क्या? क्या हम जंगल राज की तरफ बढ़ रहे है ? कोई देश कानून और संविधान के रास्ते पर ही चल सकता है। गुंडे-मवालियों का पुलिस को अपना बार-बार शिकार बनाना इस बात का ठोस संकेत है कि पुलिस को अपने कर्तव्यों के निवर्हन के लिए नए सिरे से सोचना ही होगा । क्या यह माना जाए कि पुलिस महकमें में कमजोरी आई है, जिसके चलते पुलिस का भय सामान्य नागरिकों के जेहन से खत्म हो