मनोरंजन का सफर: साल था 1892 जब दुनिया के किसी कोने में फोटोस्कोप नाम की एक मोशन पिक्चर यानी कि चलचित्र मशीन का अविष्कार हुआ और यहीं मशीन जब 1895 में बाज़ारों में आई तो इसे बाइस्कोप का नाम मिला और शायद यहीं से दुनिया मे चलचित्र को दिखाए जाने की नींव रखी गयी।
वो जमाना शायद अब हम सबकी निगाहों से कहीं ओझल हो चुका होगा जिसमें रंगमंच और नुक्कड़ नाटक को लोग अपने मनोरंजन का साधन बनाते थे। एक दौर वो भी आया जब भारत मे मनोरंजन के साधन के रूप पपेट शो यानी कि कठपुतलियों का खेल दिखाई जानें कि परम्परा थी।
देश, अंग्रेजी हुकूमत के पैरो तले दबा हुआ था और अपने अस्तित्व को बचाने का कई हद तक प्रयास कर रहा था। यहीं सब वो दौर था जब शायद सोचा गया होगा कि मनोरंजन के एक ऐसे साधन की जरूरत है जिसे एक साथ सभी बिना किसी सहारे के देख सके और उसकी कॉपी सहेज कर भी रखी जा सके।
ब्रदर्स ने भारत मे पहली बार मूक शॉर्ट फ़िल्म के रूप में पहली मोशन पिक्चर को दिया जन्म
जरूरत महसूस हुई तो साल 1896 में फ्रेंच मूल के दो भाइ लुमिनर्स लेकिन भारत मे विधिवत फ़िल्म या यूं कहें कि पूरी फिल्म साल 1913 में बनी। जिसे बनाया था दादा साहेब फाल्के ने, इस फ़िल्म का नाम था “राजा हरिश्चन्द्र”, आपको बता दें कि इस फ़िल्म में कैमरामैन ने लेकर राइटर, निर्माता से लेकर निर्देशक तक सभी किरदार दादा साहब ने अकेले ही निभाया।
साल 1913 से लेकर 1918 तक दादा साहेब ने अपने दम पर कुल 23 फिल्मो का निर्देशन एवं निर्माण किया। भारत मे फ़िल्म इंडस्ट्री की इतनी निष्ठावान शुरुआत करने के लिए ही आज उन्हें “सिनेमा जगत का पितामह” कहा जाता है और फ़िल्म इंडस्ट्री का सबसे बड़ा पुरुस्कार भी उन्ही के नाम से दिया जाता है। बस यहीं से शुरु हुआ भारत मे चलचित्र का सफर और जन्म हुआ एक नई इंडस्ट्री का, आइये क्रमवार दशकों में बात कर इसे समझने का प्रयास करतें हैं
फ़िल्म जगत का शुरुआती दौर
ये 1920 से 30 का दशक होगा। जब भारत मे ज्यादातर फिल्मे किसी ऐतिहासिक या पौराणिक कहानियों पर बना करती थी, तो वहीं पश्चिम में इस समय ड्रामा, थ्रिलर और एक्शन फिल्में बनाने का दौर था। इस दौर में भी फिल्मे ब्लैक एंड व्हाइट एवं मूक ही हुआ करतीं थी।
भारत मे मूक फिल्मो का दौर तब खत्म हुआ जब अर्देशिर ईरानी ने अपने निर्देशन में पहली बोलने वाली फिल्म बनाई, जिसका नाम था ‘आलम आरा’ साथ ही भारत मे बनने वाली पहली रंगीन फ़िल्म भी इन्ही के निर्देशन में ही बनाई गई जिसका नाम था ‘किसान- कन्हैया’।
1913 से लेकर 1931- 32 तक सिर्फ बम्बई (मुम्बई) में ही नही बल्कि अन्य राज्यों में भी फिल्मे बननी शुरू हुई। साल 1917 में पहली ‘बंगाली प्रोडक्शन’ फ़िल्म ‘नल- दमयन्ती’ रिलीज हुई, तो वहीं 1919 में पहली दक्षिण भारतीय फिल्म ‘किचालावदम’ रिलीज की गई। साल 1932 में पहली मराठी फिल्म बनी जिसका नाम था, ‘अयोध्या च राजा’।
अब धीरे – धीरे दौर बदल रहा था। साल था 1949 का, अब फिल्मो की कहानी पौराणिक और ऐतिहासिक तथ्यों को पीछे छोड़ आधुनिक तथ्यों पर आधरित होने लगी। आम लोगों के जीवन की गाथा और उसका वास्तविकता सृजन भी यहीं से शुरू हुआ।
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भारतीय सिनेमा जगत का स्वर्णिम युग
साल 1960 आते – आते फ़िल्म इंडस्ट्री को दो ऐसे नायक मीले जिन्होंने आम आदमी के जीवन की गाथा और उसमें आने वाले उतार चढ़ावो को दिखाने का निश्चय किया। ये दो नाम थे मृणाल सेन और ऋतिक घटक के। साल 1950 से लेकर 60 का दौर जिसे ‘फ़िल्म इंडस्ट्री का स्वर्णिम युग’ भी कहा जाता है क्योंकि इस दशक में फ़िल्म इंडस्ट्री ने हमे वो अदाकारा दिए हैं जिन्हें हम भुलाये नही भूल सकतें हैं। गुरु दत्त, राज कपूर, मीना कुमारी, मधुबाला, नरगिस, दिलीप कुमार, नूतन, और देवानंद और तमाम ऐसे अदाकार जो आज भी हमारे दिल और दिमाग मे बसें हुए हैं।
सत्तर में मिला हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को उसका नाम
सत्तर का दशक आते – आते पश्चिम में हॉलीवुड इंडस्ट्री काफ़ी आगे बढ़ चुकी थी और भारत में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री एक अलग ही रूप में अपना वर्चश्व कायम करने की दौड़ में शामिल थी। सत्तर का दौर इसलिये भी याद किया जाता है क्योंकि इस समय भारत मे हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को अपना नाम मिला, जिसे मुम्बई और हॉलीवुड को मिला कर ‘बॉलीवुड’ रखा गया।
इस दौर में सिनेमा जगत में मसाला मूवी बनाना शुरू हुई एक्शन और ड्रामा फिल्मो का सफर भी यहीं से शुरू हुआ। मनोरंजन के इस दौर में बच्चन, राजेश खन्ना, धर्मेद्र और हेमा मालिनी जैसे किरदार उभर कर पटल पर आये। 15 अगस्त 1975 को रिलीज हुई फ़िल्म ‘सोले’ सबसे बड़ी ब्लॉक बस्टर हिट फिल्म थी जिसके चलते बच्चन रातोंरात स्टार बन गये।
फिल्मी जगत में तकनीकी सुधार का युग
इसके बाद से ही फ़िल्म इंडस्ट्री में तकनीकी सुधार हुए और अस्सी का दौर शुरू हुआ। इस दौर में शनि देओल, जैकी श्रॉफ, नसरुद्दीन शाह, ओम पुरी, अनुपम खेर जैसे किरदारों ने अपनी एक्टिंग का हुनर बिखेरा।
बॉलीवुड के तीन खान
मनोरंजन की दुनिया में फिर आया नब्बे का दशक जिसने फ़िल्म इंडस्ट्री को 3 खान दिये। साल 1994 में आई ‘हम आपके हैं कौन’, 1995 में ‘डीडीएलजे’,और साल 1996 में रिलीज हुई ‘राजा हिंदुस्तानी’ ने सलमान, शाहरुख और अमीर खान को बॉलीवुड की कमान सौप दी। साल 1994 में राज श्री प्रोडक्शन की फ़िल्म ‘हम आपके हैं कौन’ ने बॉलीवुड में सामाजिक फिल्मो को एक बार फिर से जगह दी क्योंकि लंबे समय से बॉलीवुड में एक्शन फिल्मों का दौर चल रहा था। यहीं से मोहनीश बहल के विलन कि छवि खत्म हुई और उन्हें एक आदर्श बेटे और बड़े भाई के रूप में इंडस्ट्री ने स्वीकारा। डीडीएलजे ने भारत मे प्रेम कहानी पर आधारित फिल्मो को जन्म दिया।
अब हम बढतें चलें गए 21वीं सदी के शुरूआती दशक में जहां फिल्मो का स्वरूप पूर्णतः बदल गया। अब भारत मे बनी फिल्मे सिर्फ भारत तक ही सीमित नही रही इसे विदेशो में भी रिलीज़ किया जानें लगा। बाहुबली और दंगल दो ऐसी फिल्में है जिसने भारत के साथ – साथ विदेशो में भी करोड़ो का कारोबार किया। भारतीय फिल्मे अब ऑस्कर तक पहुँच गयी साल 2009 में आई फ़िल्म ‘स्लम डॉग मलेनियर’ ने ऑस्कर का ख़िताब अपने नाम किया।
ऑनलाइन युग की शुरुआत
आज भारत मे सिनेमा जगत का स्वरूप पूर्णतः बदल गया है। फिल्मे अब मुख्य रूप में पर्दो पर से OTT प्लेटफार्म तक पहुँच चूकिं हैं। फिल्मो की जगह अब कई हद तक वेब सिरीज़ ने ले ली हैं और कई फिल्में अब ऑनलाइन ही रिलीज़ होने लगीं हैं।
सेक्रेड गेम्स, मिर्जापुर, असुर, ब्रीथ और न जाने कितनी ही ऐसी वेब सिरीज़ बनी जो हॉलीवुड लेवेल की हैं। वैसे देखा जाए तो भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की विधिवत चर्चा तो इतनी विस्तृत है कि उसे महज़ कुछ शब्दो मे बयां किया ही नही जा सकता है लेकिन इसके चंद पहलुओ पर प्रकाश डालने का जरूर ये एक प्रयास है।
गरिमा सिंह