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March 29, 2024
Dustak Special

खुदीराम बोस: छोटी उम्र में किया बड़ा काम, दर्ज हो गया इतिहास में नाम

आज हिंदुस्तान अपनी आज़ादी का जश्न मना रहा है और देश को आज़ाद कराने में अनेक वीरों ने अपनी शहादत दी है। मगर दुःख की बात यह है कि इनमें से कुछ चुनिंदा शूरवीर ही विख्यात हैं बाकी महान पुरुषों को लोग भूल गए हैं और उन्हीं में से आते है “खुदीराम बोस”

18 वर्ष की उम्र में जब अन्य नौजवान लड़कों को यह तक ज्ञात नहीं होता कि उनके जीवन का लक्ष्य क्या है। तब 18 वर्षीय खुदीराम बोस ने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए अपने जीवन का बलिदान देना उचित समझा।

खुदीराम बोस

जानते हैं खुदीराम बोस शुरुआती जीवन के बारे में

तो इनका जन्म 3 दिसम्बर 1889 को बंगाल के “हबीबपुर” में हुआ था। इनके पिताजी “त्रिलोकीनाथ” जो कि तहसीलदार थे तथा माताजी “लक्ष्मीप्रिया देवी” एक गृहणी थीं। खुदीराम जब 6 वर्ष के थे तभी इनकी माता जी का  देहांत हो जाता है और इसके एक साल बाद पिता जी का भी साथ हमेशा के लिए छूट जाता है।

ऐसे में इनकी बड़ी बहन ने खुदीराम बोस को पाल-पोसकर बड़ा किया। इनकी पढ़ाई “हैमिल्टन हाईस्कूल” से हुई और यहाँ से इनके अंदर बदलाव आना शुरू हो गया था। यह एक ऐसा दौर था जब देश में कई महान क्रांतिकारी मौजूद थे और आज़ादी की आस जगनी शुरू हो गई थी।

इस वजह से अपने बचपन के आरंभ से ही खुदीराम बोस में भी क्रांतिकारी व्यक्तित्व की नींव पड़नी शुरू हो गई थी। साथ ही वह ये भी देख रहे थे कि कैसे अंग्रेज भारतीयों पर अत्याचार करते आ रहे हैं। इस वजह से उनके मन में अंग्रेजों के प्रति क्रोध की चिंगारी सुलग रही थी जिसने आने वाले समय में अग्नि का रूप ले लिया।

पत्रकारिता से किया लोगों को जागरूक:

भारतीय क्रांतिकारियों के ऊपर अंग्रेजों ने पैनी नज़र बनाई हुई थी और एक समय तो ऐसा भी आया जब यह आदेश दिया गया कि कहीं भी कोई क्रांतिकारी दिखे उसे तुरन्त गोली मार दिया जाए। यानी देश में हो रहे अत्याचार की आवाज़ उठाने पर मौत की सज़ा दी जाने लगी। ऐसे में प्रश्न यह था कि लोगों के अंदर आज़ादी लेने की ललक कैसे जगाई जाए? तब इसका जवाब आया “पत्रकारिता”

उस समय “जुगांतर” बेहद ही क्रांतिकारी अखबार था जो कि साप्ताहिक था। इसमें अंग्रेजों के कहर को स्पष्ट शब्दों में छापा जाता था तथा लोगों को जागरूक बनाने का कार्य यह अखबार बखूबी कर रहा था। जिस वजह से अंग्रेज इस अखबार के पत्रकारों, एडिटरों को पकड़-पकड़ कर कारागार में डाल रहे थे।

वहीं दूसरी ओर अखबार, पेम्पलेट्स इत्यादि में अंग्रेजों के ज़ुल्मों को छापा करते थे और यह जब लोग पढ़ते तो उनके अंदर एक अलग से आज़ादी लेने की जिज्ञासा जागृत होती। 15 वर्ष की उम्र से ही खुदीराम बोस एक क्रांतिकारी बन चुके थे और उस वक्त अंग्रेजों के खिलाफ छप रहे पेम्पलेट्स को वह बांटने का कार्य करते थे, जिसकी वजह से अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार भी किया। मगर उम्र कम थी तो उन्हें छोड़ दिया गया।

कैसे हुआ मुजफ्फरपुर बॉम्ब केस?

अंग्रेजों के अत्याचार बढ़ रहे थे। इन पर लगाम लगाने के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने बहुत कम उम्र में बम बनाना सीख लिया था। इसका इस्तेमाल किंग्सफोर्ड को मारने लिए किया गया लेकिन निशाना चूकने की वजह से उनकी मृत्यु नहीं हो सकी और खुदीराम बोस को जेल जाना पड़ा।

मामला यह था कि 29 अप्रैल 1908 की शाम को यह स्कूली बच्चों के भेष में जाते हैं और वहाँ की स्थिति का जायज़ा लेते हैं। बड़ी बात यह है कि अंग्रेजों को शक हो गया था कि कुछ क्रांतिकारी लोग हमला कर सकते हैं और नज़र इन पर रखी जा रही थी।

लेकिन इनकी उम्र कम थी जिसकी वजह से इनको बच्चा समझ कर अधिक ध्यान नहीं दिया जा रहा था। अब इन दोनों का प्लान यह था कि जैसे ही किंग्सफोर्ड  अपनी बग्गी पर बैठेगें वैसे ही उनके ऊपर बमबाजी शुरू कर देनी है। इसके बाद 30 अप्रैल 1908 को किंग्सफोर्ड और उनकी पत्नी तथा प्रिंगल केनेडी जो कि बैरिस्टर तथा लेखक थे।

वह भी अपनी पत्नी के साथ मौजूद थे और सभी लोग ताश खेल रहे थे। इसी बीच आते हैं खुदीराम और प्रफुल्ल स्कूली बच्चों का भेष बनाकर। रात के 8:30 बजे ये सभी खेल कर अपने वाहन की तरफ बढ़ने लगते हैं और दूसरी ओर खुदीराम का प्लान नज़दीक आ रहा होता है।

Freedom Fighter Khudiram Bose
छोटी सी चूक और सारी मेहनत पर फिर गया पानी:

किंग्सफोर्ड और प्रिंगल केनेडी के वाहन दोनों ही एक जैसे थे और यहाँ खुदीराम तथा प्रफुल्ल असमंजस में पड़ गए कि कौन सा वाहन किंग्सफोर्ड का है। तभी दोनों ने बम फेंका और वह गिरा प्रिंगल केनेडी के वाहन पर। भयंकर विस्फोट होता है जिसका नतीजा यह रहा कि उस वाहन के परखच्चे उड़ जाते हैं और प्रिंगल केनेडी की पत्नी तथा बेटी की उसी वक्त मौत हो जाती है और यह वाक्या पूरे देश में आग की तरह फैल जाता है।

कैसे हुए गिरफ्तार?

इतना बड़ा हमला करने बाद खुदीराम तथा प्रफुल्ल अलग हो जाते हैं और दोनों ही एक स्थान से दूसरे स्थान भागते रहते हैं। वहीं अंग्रेजों को अभी तक यह पता नहीं चल सका था कि आखिर हमला किया किसने है?

इसके बाद रात भर चलने की वजह से खुदीराम बहुत ही अधिक थक चुके थे और अगले दिन सुबह 1 मई 1908 को ऐसी स्थिति में वह “वायनि” के पुलिस स्टेशन पहुंचते हैं और वहां के कांस्टेबल फतेह सिंह तथा शेओ प्रसाद सिंह की नज़र इन पर पड़ती है और पूछताछ के बाद खुदीराम बोस को गिरफ्तार कर लिया जाता है। दूसरी ओर प्रफुल्ल चाकी भी भागने में कामयाब तो रहे लेकिन इनकी हालत भी अच्छी नहीं थी।

इसी बीच प्रफुल्ल को “त्रीभुनाचरण घोष” मिलते हैं और यह इनको अपने घर ले जाकर पानी पिलाते हैं तथा नए कपड़े देते हैं। इसके बाद त्रीभुनाचरण घोष, प्रफुल्ल चाकी से कहते हैं कि समस्तीपुर से हावड़ा के लिए आप निकल जाइये और ये ऐसा ही करते हैं।

ट्रेन में सादे कपड़ों में नन्दलाल बनर्जी मौजूद होते हैं जो कि “सब इंस्पेक्टर” थे। यह प्रफुल्ल की वेशभूषा को देखते ही संदेह करने लगते हैं और उनसे बातचीत करना शुरू करते हैं। इसी बीच प्रफुल्ल चाकी को ज़रा भी ज्ञात नहीं होता कि ये एक पुलिसकर्मी है और बातों ही बातों में इस हमले में उनका हाथ है यह बता दिया और इसी बात को नन्दलाल बनर्जी ने अपने सह पुलिसकर्मियों को बता दिया।

जिसका नतीजा यह रहा कि अगले ही स्टेशन में इनकी गिरफ्तारी हो जाती है। इसी बीच पुलिसकर्मी तथा प्रफुल्ल चाकी के बीच झड़प होती है जिसके पश्चात वह फिर से भागने में कामयाब हो जाते हैं और अंत में वह अपने सिर में गोली मार लेते हैं और इसी के साथ उनका जीवन समाप्त जो जाता है।

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जब छोटे से बच्चे को मिली फाँसी की सज़ा:

हमले की वजह से खुदीराम बोस को फाँसी की सज़ा सुनाई गई। उम्र मात्र 18 वर्ष और पूरे देश में यही प्रश्न पूछा जा रहा था कि आखिर कौन है वह नौजवान लड़का जिसने अपने देश को आज़ाद कराने के लिए अपनी जान की कुर्बानी देने जा रहा है।

वहीं कोर्ट में खुदीराम बोस को बचाने के लिए जीतोड़ प्रयास किए जाते हैं और एक समय तो ऐसा लग रहा था कि वह इन सभी आरोपों से बरी हो जाएंगे। मगर ऐसा नहीं हो पाता है 11 अगस्त 1908 को इनको फाँसी देने का दिन निर्धारित किया गया। यह फैसला आने के बाद जनता ने खुदीराम के सम्मान में उनके ऊपर फूलों की मालाएँ चढ़ाई।

साथ ही उन्होंने अपने चेहरे पर मुस्कान के साथ कहा कि “मेरे जाने के बाद हज़ारों खुदीराम जन्म लेंगे”। इसके बाद 11 अगस्त 1908 को खुदीराम बोस ने देश की आज़ादी के खातिर अपने प्राणों को त्याग दिया। भले ही खुदीराम बोस आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन इनकी ये वीर गाथा इतिहास के पन्नों में अपना स्थान दर्ज करा चुकी है।

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