- विंध्यवासिनी के मंदिर प्रांगण में भी एक लघु त्रिकोण - पार्वती के चरणरज के कारण अत्यंत पवित्र है विंध्य पर्वत
भगवान शिव का त्रिनेत्र: भारतीय मनीषियों ने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थो में मोक्ष को सर्वश्रेष्ठ माना है। इस मोक्ष को प्राप्त करने का एकमात्र साधन धर्म है। जीवन के सत्य का अन्वेषण ही ऋषियों का धार्मिक चिंतन है। धर्म जीवन है और जीवन धर्म है।
धर्म जीवन को धारण करता है और जीवन धर्म को। जहां जीवन है, वहां किसी न किसी प्रकार धर्म है। धर्म के अभाव में जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। धर्म की निंदा करने वाला सबसे अधिक धार्मिक होता है, क्योंकि वह अपने धर्म की स्थापना करना चाहता है।
केदारनाथजी के तीनों नेत्रों से एक वृहद त्रिकोण का होता है निर्माण
धर्म से पृथक कर भारत को नहीं देखा जा सकता है। यहां की नदियां, पहाड़, वन-उपवन, विटप, लता आदि सब जड़ एक धर्म का मूर्तिमान स्वरूप है। हिमालय और विंध्य पर्वत दो ऐसे अचल धर्म हैं जिसकी शरण व्यक्ति को शांति प्रदान करती है। हिमालय अपनी प्राकृतिक सम्पदाओं के कारण जितना प्रतिष्ठित है, उससे अधिक भगवान शिव की तपोभूमि होने के कारण।
विंध्य पर्वत पार्वती के चरणरज के कारण अत्यंत पवित्र है। ऋषियों- मुनियों ने उत्तर और दक्षिण भारत को तीर्थों को हिरण्यमय सूत्रों से बांध दिया है। धार्मिक भावना ने लोगों को एक स्थान पर मिलाकर एक दूसरे को पहचानने, आदर करने और सेवा करने का अवसर प्रदान किया है।
तीर्थ पापों से तारता है। तीर्थस्थल व्यक्ति को सात्विक बनाता है, उसे तपस्या करने की प्रेरणा देता है, उसे द्वंदमुक्त करने का प्रयास करता है। सम्पूर्ण तपोभूमि में विंध्य क्षेत्र का अत्यंत महत्व है क्योंकि यहां जगज्जननी माता पार्वती का निवास है।
ऐसी मान्यता है कि उत्तर में केदारनाथजी के तीनों नेत्रों से एक वृहद त्रिकोण का निर्माण होता है। पूर्व में कामाख्या, दक्षिण में विंध्यवासिनी या मैहर स्थित शारदा देवी और उत्तर में वैष्णवी देवी हैं, जो त्रिकोण के तीन बिंदु हैं। ये तीनों बिंदु महाकाल की शक्तियां हैं। इन्हीं तीनों से जगत की सृष्टि, पालन और संहार होता रहता है।
विंध्य क्षेत्र में भी एक त्रिकोण है
इस त्रिकोण केबिंदु भगवान शिव हैं जो रामेश्वर महादेव मंदिर में पूर्वाभिमुख स्थित हैं। उनके एक नेत्र से पश्चिमामुख भगवती लक्ष्मी विंध्यवासिनी नाम से प्रसिद्ध हैं। दूसरे नेत्र से महाकाली कालीखोह में स्थित हैं और तीसरे नेत्र से विंध्य पर्वत स्थित महासरस्वती अष्टभुजा के नाम से उत्तराभिमुख स्थित हैं।
इसके अतिरिक्त गंगा तट निवासिनी विंध्यवासिनी के मंदिर प्रांगण में एक लघु त्रिकोण है। पूर्व में मुख्य मंदिर में पश्चिमाभिमुख मां विंध्यवासिनी हैं और उनके समक्ष शिव हैं। भगवती के वाम भाग दक्षिण दिशा में उत्तराभिमुख उर्ध्वमुखी काली हैं।
उत्तर-पश्चिम में पूर्वमुख भगवती सरस्वती हैं। इस प्रकार का बना हुआ यह त्रिकोण भक्त को साक्षात् भगवान शिव के तीनों नेत्रों की शक्तियों का साक्षात्कार कराता है। भक्त इस त्रिकोण के रहस्य को न जानते हुए भी त्रिकोण की यात्रा पूरी करते हैं।
नवरात्र के अवसर पर विंध्यधाम में देश के प्रत्येक भाग से भक्त यहां मां विंध्यवासिनी के दर्शन के लिए आते हैं। अधिकांश भक्त महालक्ष्मी का दर्शन करते हैं। महालक्ष्मी उनकी कामनाओं को पूर्ण करती हैं। यह मंदिर गंगा के दक्षिण तट पर स्थित है। दर्शनार्थी गंगा स्नान कर मां विंध्यवासिनी का दर्शन कर कृतार्थ हो जाते हैं। अष्टभुजा व महाकाली का दर्शन अति श्रद्धालु भक्त करते हैं। इस त्रिकोण की यात्रा जीवन के त्रिकोणात्मक संघर्ष को क्षीण करती है।
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धर्ममूलक काम ही जीवन की आधारशिला होती है
मनुष्य मोक्ष प्राप्ति की कामना मात्र करता है। वह धर्म, अर्थ और काम के त्रिकोण की यात्रा करता हुआ मोक्ष कामना से विरत रहता है। वस्तुत: धर्म शीर्ष बिंदु है और अर्थ व काम आधार के बिंदु हैं। इन दोनों बिंदुओं से निकली हुई रेखाएं धर्मरूपी शीर्ष बिंदु में मिलती हैं। यदि अर्थ धर्माभिमुख नहीं है तो वह अनर्थ का कारण है। इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि धन से जब धर्म होता है तभी सुख की प्राप्ति होती है।
आज का मनुष्य धर्म से अर्थ को नहीं जोड़ता है अर्थात् उसका धन धर्म के लिए नहीं वरन अधर्म के लिए है। अर्थ के धर्माभिमुख होने के कारण आज मनुष्य का अस्तित्व अग्निपुंज पर स्थित है। एक ओर लोग एक मुट्ठी दाने के लिए तरस रहे हैं और दूसरी ओर अर्थ रक्त पी रहा है। इसी प्रकार काम भी धर्म प्रतीय हो गया है।
भगवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि मैं धर्म के अनुकूल काम हूं। धर्ममूलक काम ही जीवन की आधारशिला होती है। काम जीवन की आवश्यकता हो सकती है किन्तु प्राण नहीं है। जहां धर्म है वहीं काम सुन्दर जीवन बनता है। धर्म के कवच से विहीन व्यक्ति काम के वाणों से शीघ्र ही आहत होकर अपने सहित समाज, देश और अपनी संस्कृति को नष्ट करता है।
दुर्गासप्तशती में देवी के तीनों चरित्र
विंध्य क्षेत्र के त्रिकोण की यात्रा करने वाला व्यक्ति ही काम, क्रोध और लोभ पर विजय प्राप्त कर सकता है। दुर्गासप्तशती में देवी के तीनों चरित्र क्रमश: क्रोध, लोभ और काम को विनष्ट करने वाले हैं। प्रथम चरित्र में देवी ने क्रोध को विनष्ट किया है। द्वितीय चरित्र में लोभ को और तृतीय चरित्र में काम को विनष्ट किया है। अग्नि जब दावाग्नि बन जाती है तब उसे समाप्त करने में अत्यधिक बुद्धि स्वरूपा महासरस्वती की अनुकम्पा की ही अपेक्षा है।
आज देश की स्थिति भी ऐसी ही है। बाह्यरूप से मानव अत्यधिक धार्मिक और संत बना हुआ है किन्तु उसके अन्तररूप में वृहद् तमोराज्य है। बुद्धि पश्चिमगामिनी है। भारत की तपस्या और साधना अर्थ और काम की सेविका बन गई है। व्यक्ति से राष्ट्र बनता है। प्रत्येक व्यक्ति की पहचान अजेय बन गई है।
उसे जो होना चाहिए वह नहीं बनता, जो नहीं होना चाहिए वह बन रहा है। इसी प्रदूषित गंगा में स्नान कर सभी व्यक्ति राज्याभिषेक के लिए लालायित है। खुली आखों में गहरी निद्रा है। ऐसी गहरी निद्रा का मां विंध्यवासिनी की अनुकम्पा ही तोड़ सकती है।