-महात्मा गांधी से प्रेरणा लेकर ग्रामीणों ने बनाया रोजगार का साधन
सतना: सतना जिला मुख्यालय से लगभग 90 किलोमीटर की दूरी पर बसे सुलखमा गांव में महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरणा लेकर ग्रामीण परिवारों ने स्वावलंबन के लिए चरखा चलाने और सूत कातने की परंपरा को आज भी जीवित रखा है। बुजुर्गों ने महात्मा गांधी से स्वावलंबन की शिक्षा ली और विरासत में पीढि़यों को सौंपकर परंपरागत रोजगार के साधन भी दे गए।
इस संबंध में जनसंपर्क विभाग के सहायक सूचना अधिकारी राजेश कुमार सिंह ने शुक्रवार को बताया कि सतना जिले की रामनगर तहसील का दूरस्थ गांव सुलखमा जहां आज भी कमोवेश हर घर में चरखे की आवाज सुनाई दे रही है। महात्मा गांधी ने सादगी और स्वावलंबन का जो पाठ पढ़ाया, उसी से प्रेरणा लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी यहां के निवासी चरखे से सूत कातकर कंबल और देसी ऊन बनाने का काम कर रहे हैं।
चरखा को रोजगार का जरिया बना लिया
पाल जाति बाहुल्य इस गांव के परिवारों में भेड़ से बाल काटकर उनकी पोनी बनाने का काम पुरुषों के जिम्मे हैं। तो वहीं महिलाएं घरेलू काम निपटाकर बचे समय में चरखे चलाकर सूत कातती हैं। इस सूत से कंबल बनाने और उसे बाजार में बेचने का काम पुरुष ही करते हैं। ग्रामीण आजीविका के तहत कंबल बनाकर बेचना इस गांव के परिवारों का मुख्य पेशा भी है और आजीविका का साधन भी।
सुलखमा के ग्रामीण रामभान पाल बताते हैं कि उनके गांव में यह परंपरागत कौशल कब से चल रहा है, यह तो नहीं मालूम। लेकिन जब से होश संभाला है, तब से इसी काम को रोजगार का जरिया बना लिया है। पुरुषों द्वारा शुरू किए गए इस काम में गांव के बहुत से परिवार लगे हुए हैं।
भेड़ के बाल काट कर उनकी धुनाई करते हैं और पोनी बनाकर उसका सूत कातते हैं और फिर कंबल की बुनाई होती है। करीब 8 से 10 दिन में एक कंबल तैयार हो जाता है। एक हजार रुपये प्रति कंबल बेचकर 5 से 10 हजार रुपये की मासिक आमदनी हो जाती है।
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स्थानीय लोगों का रोजगार है चरखा चलना
रामभान पाल बताते हैं कि बचपन से देखते आ रहे हैं कि आजादी के बाद पहले लगभग सभी घरों में चरखा चलाने का काम होता था। लेकिन गांव के लोग दूसरे शहरों में रोजगार की तलाश में चले गए और बुजुर्ग सयाने हुनरमंदो में शारीरिक शिथिलता होने से अब 13-14 घरों में ही चरखा चलाकर सूत कातने और कंबल बनाने का काम हो रहा है।
65 वर्षीय रुवसिया पाल बताती हैं कि चरखा चलाने का काम उनके मायके में भी होता था। लिहाजा सुलखमा आने पर उन्होंने यह कार्य जारी रखा। उम्र बढ़ने के साथ हाथ और पैरों में दर्द भी होने लगा है। अब उतने समय तक सूत कातने का काम नहीं हो पाता।
ग्रामीण धीरज पाल का कहना है कि भले ही कई समस्याएं हों, लेकिन महात्मा गांधी के आदर्शों से प्रेरणा लेकर हमारे बुजुर्गों द्वारा सौंपी गई यह परंपरा हमारे लिए धरोहर से कम नहीं हैं। चरखा कातने और कंबल बिनाई के कार्य में शासकीय योजनाओं की मदद से मशीनीकरण को बढ़ावा देकर श्रम और समय की कमी की जा सकती है।
जो कंबल बनाने में 8 से 10 दिन का समय लगता है, वह मशीनों के माध्यम से 1 से 2 दिन में तैयार किया जा सकता है। उन्नत तकनीक और आधुनिकीकरण से सूत कातने और खादी कंबल बनाने के ग्रामोद्योग कुटीर उद्योग से ग्राम्य स्वावलंबन की राह सशक्त की जा सकती है।