17 मई को इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च यानी आईसीएमआर ने अपने कोविड प्रोटोकॉल में से प्लाज्मा थेरेपी को बाहर निकाल दिया है। यह निर्णय उस रिसर्च के सामने आने के बाद लिया गया है, जिसमें कहा गया है कि प्लाज्मा थेरेपी से अस्पतालों में भर्ती कोरोना मरीजों की जिंदगी बचाई जा सके, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है। आईसीएमआर ने इसे हटाने के फैसले की जानकारी देते हुए बताया है कि सरकार ने पाया कि कोविड-19 मरीजों के उपचार में यह थेरेपी गंभीर बीमारी को दूर करने और मौत के मामलों को कम करने में फायदेमंद साबित नहीं हुई है।
शुरुआत में देशभर में कोरोना के इलाज के लिए प्लाज्मा थेरेपी को एक प्रायोगिक इलाज के तौर पर अनुमति मिली थी, हालांकि सरकार ने अक्टूबर 2020 में ही यह संकेत दिए थे कि कोरोना वायरस के इलाज में यह ज्यादा कारगर साबित नहीं हो रही। अक्टूबर 2020 में आईसीएमआर ने एक रिसर्च का हवाला दिया था, जिसके अनुसार इस थेरेपी से मृत्यु दर में कोई कमी नहीं आती। आईसीएमआर के इस शोध में लगभग 10 पेज की रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसमें कोविड पर प्लाज्मा थेरेपी के असर के बारे में बताया गया है। इस रिसर्च के सामने आने के बाद तकरीबन 6 महीने बाद आईसीएमआर ने इस थेरेपी को कोरोना मैनेजमेंट की लिस्ट से हटा दिया है।
आखिर क्या है प्लाज्मा थेरेपी
प्लाज्मा खून में मौजूद एक लिक्विड कंपोनेंट होता है, यह पीले रंग का होता है। एक स्वस्थ शरीर में 55 फीसदी से ज्यादा प्लाज्मा होता है और इसमें पानी के अलावा हार्मोंस, प्रोटीन, कार्बन डाइऑक्साइड और ग्लूकोज मिनरल्स होते हैं। प्लाज्मा थेरेपी में कोरोना वायरस से ठीक हुए व्यक्ति से रक्त निकाला जाता है, फिर इस रक्त से प्लाज्मा नामक पीले रंग के तरल पदार्थ को अलग किया जाता है। कोरोना वायरस से पीड़ित मरीज को यही प्लाज्मा दिया जाता है। जब किसी व्यक्ति को इंफेक्शन होता है तो उसके शरीर में इंफेक्शन फैलाने वाले वायरस के खिलाफ एंटीबॉडीज बनने लगती हैं, ये एंटीबॉडीज उस इंफेक्शन से लड़ती हैं और शरीर को रोगमुक्त बनाती हैं।
कोरोना वायरस से संक्रमित जो लोग ठीक हो रहे हैं, उनके खून के एक जरूरी हिस्से प्लाज्मा में कोरोना वायरस के खिलाफ एंटीबॉडीज बन जाती हैं। माना जाता है कि अगर कोरोना वायरस से ठीक हो चुके मरीज का ब्लड प्लाज्मा, बीमार मरीज को दिया जाए तो इससे ठीक हो चुके मरीज की एंटीबॉडीज बीमार मरीज के शरीर में ट्रांसफर हो जाती हैं। इस तरह ये एंटीबॉडीज मरीज के शरीर में वायरस से लड़ना शुरू कर देती हैं और फिर मरीज ठीक होने लगता है।
कई डॉक्टर्स का मानना है कि जब वायरस किसी शरीर में बुरी तरह से अटैक करता है और शरीर में एंटीबॉडीज नहीं बन पातीं, तो प्लाज्मा थेरेपी ऐसे समय में काम आ सकती है। यही कारण है कि कोरोना के इलाज में ब्लड प्लाज्मा की काफी डिमांड रही है, लेकिन ज्यादातर मामलों में यह असरदार साबित नहीं होती और यह भी देखा गया है कि यह मरीजों की जान नहीं बचा पाती।
यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड के अनुसार कोरोना के इलाज में प्लाज्मा थेरेपी मददगार नहीं
कोरोना के केवल 10 प्रतिशत मरीजों को ही यह थेरेपी दी जा सकती है, किंतु कई रिसर्च से पता चला है कि इन 10 प्रतिशत मामलों में भी यह थेरेपी कारगर साबित नहीं हुई। सबसे पहले 15 मई को यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की रिकवरी नाम की एक स्टडी मशहूर मेडिकल जर्नल लांसेट में छपी। इसके अनुसार कोरोना मरीजों के इलाज में प्लाज्मा थेरेपी मददगार साबित नहीं होती है। यह कोविड मरीजों के इलाज को लेकर की गई अपनी तरह की सबसे बड़ी स्टडी है, इसने दुनिया भर में इसको लेकर चल रही बहस पर विराम लगा दिया है।
भारत के 18 बड़े डॉक्टर्स, वैज्ञानिकों और पब्लिक हेल्थ प्रोफेशनल्स ने भारत सरकार के प्रिंसिपल साइंटिफिक एडवाइजर के. विजय राघवन को एक पत्र लिखकर सिफारिश की थी कि प्लाज्मा थेरेपी से मरीजों के ठीक होने के सबूत नहीं मिलते, इसलिए इसे लेकर सरकार को कड़े कदम उठाने चाहिए। ब्रिटेन में इस विषय को लेकर 11 हजार लोगों पर एक परीक्षण किया गया, लेकिन इस परीक्षण में कोविड के इलाज में प्लाज्मा थेरेपी की कोई खास भूमिका देखने को नहीं मिली।
अर्जेंटीना में भी इस पर रिसर्च हुई और इसी प्रकार के नतीजे सामने आए। वहां भी डॉक्टरों ने इस इलाज को कारगर नहीं पाया। भारत में मेडिकल रिसर्च करने वाली सरकारी संस्था आईसीएमआर ने भी पिछले साल इस पर एक रिसर्च की थी, जिसमें यह बात सामने आई थी कि प्लाज्मा थेरेपी मृत्यु दर को कम करने और कोरोना के गंभीर मरीजों का इलाज करने में कोई खास कारगर नहीं है।
डाक्टरों की मानें तो इस थेरेपी से वायरस के नए स्ट्रेन्स पनप सकते हैं
हाल ही में भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार के. विजय राघवन ने प्लाज्मा थेरेपी के अतार्किक और अवैज्ञानिक इस्तेमाल पर सवाल खड़े किए थे। उनके हिसाब से किसी भी बड़ी रिसर्च में इसे जान बचाने वाली थेरेपी नहीं पाया गया। कोरोना की इस दूसरी खतरनाक लहर में संक्रमण से ठीक हो चुके लोगों को प्लाज्मा डोनेट करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था, लेकिन प्लाज्मा थेरेपी से कोरोना के इलाज को लेकर डॉक्टरों के बीच एकराय कभी नहीं रही।
अभी तक हुई किसी मेडिकल रिसर्च में भी इस इलाज का असर स्थापित नहीं हो सका है। ऐसे में अब ट्रीटमेंट प्रोटोकॉल से प्लाज्मा थेरेपी को बाहर करने का फैसला ले लिया गया है। अभी तक आईसीएमआर की गाइडलाइन यह कहती थी कि लक्षण दिखने के 7 दिनों के अंदर इसका ऑफ लेबल इस्तेमाल किया जा सकता है, किंतु कुछ दिनों पूर्व आईसीएमआर और कोविड-19 पर बनी नेशनल टास्क फोर्स की एक मीटिंग हुई, इसमें सभी सदस्यों ने इसको अप्रभावी बताते हुए इसे गाइडलाइन से हटाने की सिफारिश की है।
डाक्टरों और वैज्ञानिकों ने प्लाज्मा थेरेपी को लेकर आईसीएमआर और एम्स को लिखे गए अपने खत में यह आशंका जताई है कि इस थेरेपी से वायरस के नए स्ट्रेन्स पनप सकते हैं। बहुत कम इम्यूनिटी वाले लोगों को यह देने पर न्यूट्रलाइजिंग एंटीबॉडीज कम बनती हैं और इससे नए वेरिएंट्स सामने आ सकते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इस थेरेपी के तर्कहीन इस्तेमाल से और अधिक संक्रामक स्ट्रेन्स डेवलप होने की आशंका बढ़ जाती है, अतः इस पर रोक लगानी आवश्यक है।
-रंजना मिश्रा