वर्तमान मे सरकार द्वारा शिक्षा को लेकर जो नीति बनाई गई है वो इस आधार पर बनाई है कि सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में पहले समस्याओं को पहचाना, और फिर उन समस्याओं का बेहतर समाधान निकाला।
किसी भी देश को अपने विकास की राह बेहतर बनानी है तो कि शिक्षा के क्षेत्र को बेहतर बनाना लाज़मी है, क्योकि शिक्षा विकास का एक महत्वपूर्ण कारक है। और जिस तरह से शिक्षा की गुणवत्ता घट रही है, उस वक्त में शिक्षा की नीति मे बदलाव स्वाभाविक भी है, और आवश्यक भी।
भारत देश को उसकी सभ्यता और विविधता उसे दूसरे देशों से अलग और अनोखा बनाती है यही वजह है कि सदियों से भारत का इतिहास गौरवशाली रहा है। किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति उसकी सभ्यता और उस देश मे बोले जाने भाषा के आधार पर की जाती है।
लेकिन आज भारत देश की पहचान यानि यहां की मातृभाषा अब दोयम दर्जे की बनकर रह गई है। आज जापान, रूस, फ्रांस जैसे विकसित देश अंग्रेज़ी का प्रयोग किये बिना, अपनी मातृभाषा का उपयोग करके सफलता की ओर बढ़ रहे हैं, उनकी सफलता का एक कारण ये भी है, कि उन्होंने अपनी मातृभाषा का गौरव इस तरह भी बढ़ा रखा है, कि वे विज्ञान व प्रौद्योगिकी की शिक्षा भी उनको उनकी मातृभाषा में दी जाती है। लेकिन आज हमे स्वतंत्रता प्राप्त हुए सात दशक से अधिक हो गए है।
साथ ही अंग्रेजी का दबदबा भी हम पर बढ़ रहा है
कहना गलत नही होगा, कि पहले “भारत पर अंग्रेजो का राज़ था आज अंग्रेज़ी का राज़ है”। आज भारत दो वर्गों मे बट रहा है एक वह वर्ग जिसे अंग्रेजी के आधिपत्य से लाभ मिल रहा है, एक वह वर्ग जिसे अंग्रेज़ी के आधिपत्य से लाभ नही मिल पा रहा, क्योंकि उस वर्ग को अपनी मातृभाषा या स्थानीय भाषा का ही ज्ञान है। और ये हिस्सा काफी बड़ा है।
भारतीय शिक्षा प्रणाली का मूल ढांचा अंग्रेजों के द्वारा लाया गया “इंग्लिश एजुकेशन एक्ट 1935” पर केंद्रित रहा है। लॉर्ड मैकाले ने ये कल्पना की होगी कि वे ऐसे वर्ग का निर्माण करेगा जो नस्ल व चमड़ी से तो भारतीय हो, लेकिन उस वर्ग की विचारधारा और सोच समझने की क्षमता “इंग्लिश” हो जाए।
ताकि उनका दबदबा भारतीयों पर ओर ज़्यादा बढ़ जाये, तभी अंग्रेज़ तो चले गए लेकिन उनके जाने के बाद उनकी “ट्रिक” काम कर गई। जो उस समय एक रणनीति के तहत अंग्रेज़ो ने थोपी थी, और आज अंग्रेजी थोप रही है। स्थिति ये है कि, जिस प्रकार अंग्रेज़ भारतीयों से हेय करते थे, आज उसी प्रकार अंग्रेजी बोलने वाले व्यक्ति उनसे हेय करते जो अपनी मातृभाषा को बोलने में ही सक्षम हैं। क्योंकि अंग्रेज़ी भाषा आज एक “स्टेटस सिंबल” बन गई है।
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भारतीय मातृभाषा और अंग्रेज़ी के बीच फसें दिखते हैं बच्चे
भारत सरकार ने जो नई शिक्षा नीति 2020 अपनाई है उसमे प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा, स्थानीय भाषा और क्षेत्रीय भाषा में हो इस पर अधिक ज़ोर दिया है, लेकिन जिस प्रकार से मैकाले का “मास्टर स्ट्रॉक” काम कर चुका है, उस स्थिति में क्या मातृभाषा मे अपनी प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थी आगे सफलता की ओर बढ़ेंगे या अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान न होने पर और पिछड़ जायेंगे??
क्योंकि एक विद्यार्थी का भविष्य इस बात पर भी निर्भर होता है, उसकी प्राथमिक शिक्षा कैसी रही है। सरकार ने प्राथमिक शिक्षा में मातृभाषा को लाने की अनुमति तो दे दी, लेकिन क्या वह उन “प्राइवेट सेक्टर” मे मातृभाषा को लाने की अनुमति होगी जहाँ ये सेक्टर ही अंग्रेज़ी भाषा पर निर्भर है, मैकाले की रणनीति जब पूरी तरह से सफल हो चुकी है क्या उस दौर में मेडिकल, इंजीनियरिंग की पढ़ाई अपनी मातृभाषा, क्षेत्रीय, या स्थानीय भाषा मे होनी संभव है?
थोड़े दिनों पहले जब मैं अपनी गली से निकल रही थी, तो एक माँ अपनी बच्ची को एक कहावत बोल रही थी कि “बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद” इसे इंग्लिश मे क्या कहेंगे बच्ची ने कहा मम्मी इसे इंग्लिश में कहेंगे “मंकी क्या जाने अदरक का टेस्ट” बच्ची की माँ हँसने लगी और कहा वैरी गुड। इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है, कि हम भारतीय मातृभाषा और अंग्रेज़ी के बीच फसें हुए दिखाई दे रहे हैं।
उस भारतीय के पास है, जिसने शिक्षा ग्रहण की है, फर्क नही पड़ता जो शिक्षा ग्रहण की है उस शिक्षा की भाषा क्या है। आत्मनिर्भर भारत की दिशा तो तय कर ली लेकिन अपनी संस्कृति, अपनी भारतीय भाषा यानी अपनी धरोहर को बचाने में हम कहा तक सक्षम हैं??