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April 18, 2024
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दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों से मिली थी काशी में ‘देव दिवाली’ की प्रेरणा

- खूबसूरत 'हजारा दीपस्तंभ' ने बढ़ाया रौनक, शहर के कुंडों-तालाबों और मंदिरों में भी दीपोत्सव

वाराणसी: काशी की विश्व प्रसिद्ध देव दिवाली में इस बार भी गंगा तट के दोनों तरफ दीये जलाए जायेंगे। लगभग 15 लाख दीयों से गंगा के दोनों किनारे रोशनी से सराबोर होंगे। शहर के कुंड, गलियां, चौराहे, पार्क, मंदिर दीपों से रोशन होंगे। चेतसिंह घाट, राजघाट पर खास लेजर शो का आयोजन किया गया है।

उत्तरवाहिनी गंगा के कई घाटों पर दीयों के साथ रंगोली भी सजाई जायेगी। काशी में देव दीपावली की शुरुआत पंचगंगा घाट से हुई। वैश्विक फलक पर अपनी सशक्त पहचान बना चुकी देव दीपावली में पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी भागीदारी कर चुके हैं।

देव दिवाली

पंचगंगा घाट पर क्षेत्रीय लोगों के सहयोग से दीपोत्सव होता था। इसके बाद वर्ष 1985 में मंगला गौरी मंदिर के महंत नारायण गुरु ने देव दिवाली को वृहद और विहंगम रूप देने के लिए प्रयास किया था। इसमें दशाश्वमेघ घाट पर गंगा सेवा निधि के संस्थापक स्मृति शेष सत्येन्द्र मिश्र, प्राचीन शीतलाघाट पर गंगोत्री सेवा समिति के अध्यक्ष पं. किशोरी रमण दुबे उर्फ बाबू महाराज ने भी अह्म भूमिका निभाई।

पंचगंगा घाट के बाद पांच अन्य घाटों पर शुरू हुई देव दीपावली पर्व को व्यापक रूप देने के लिए केंद्रीय देव दिवाली महासमिति के अध्यक्ष पं. वागीश दत्त मिश्र ने भी अथक परिश्रम किया। समिति के पदाधिकारियों ने काशी के कुंडों और तालाबों पर भी देव दीपावली बनाने की पहल की। 1995 से देव दीपावली को व्यापक आधार मिला, तो शहर के अन्य समाजसेवी भी इसमें योगदान देने के लिए आगे आये। देखते ही देखते उत्सव वैश्विक फलक पर आ गया।

हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को भगवान शिव के विजय पर्व के रूप में मनाते हैं

काशी में नियमित ओम नम: शिवाय प्रभात फेरी निकालने वाले शिवाराधना समिति के संस्थापक डॉ मृदुल मिश्र ने बताया कि काशी के देव दीपावली उत्सव में किसी न किसी रूप में देवता भी शामिल होते हैं। कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को पर्व मनाया जाता है। उन्होंने इस बारे में एक कथा का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि एक समय त्रिपुर नाम के बलशाली राक्षस के अत्याचारों से देवता, ऋषि बेहाल और दुखी थे।

अपनी रक्षा के लिए सभी महादेव की शरण में गए। तब भगवान शिव ने कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि को त्रिपुरासुर का वध कर दिया और तीनों लोकों को उसके भय से मुक्त किया। उस दिन से ही देवता हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को भगवान शिव के विजय पर्व के रूप में मनाने लगे। तब से देव दिवाली की शुरुआत हुई है।

एक अन्य कथा के अनुसार महर्षि विश्वामित्र ने देवताओं की सत्ता को चुनौती देकर अपने तप बल से त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। यह देखकर नाराज देवताओं ने त्रिशंकु को वापस पृथ्वी पर भेजना चाहा लेकिन महर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से उन्हें हवा में ही रोक दिया और नई स्वर्ग तथा सृष्टि की रचना प्रारंभ कर दी। यह देख देवताओं ने महर्षि से प्रार्थना की। तब उन्होंने दूसरे स्वर्ग और सृष्टि की रचना बंद कर दी। इससे प्रसन्न देवताओं ने दिवाली मनाई थी।

दीपों का अद्भुत जगमग प्रकाश ‘देवलोक‘ जैसा वातावरण

डॉ मृदुल बताते हैं कि काशी में देव दीपावली को स्थापित करने में रानी अहिल्याबाई होलकर ने भी बड़ा योगदान दिया था। उन्होंने पंचगंगा घाट पर पत्थरों से बना खूबसूरत ‘हजारा दीपस्तंभ‘ स्थापित किया था, जिस पर 1001 से अधिक दीप एक साथ जलते हैं।

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यहां दीपों का अद्भुत जगमग प्रकाश ‘देवलोक‘ जैसे वातावरण का अनुभव कराता है। हजारे को देख लगता है कि गंगा के गले में स्वर्णिम आभा बिखर रही है। इसे देखने के लिए भी पर्यटक हजारों की संख्या में जुटते है।

वर्ष 1986 में पूर्व काशी नरेश स्व. डॉ विभूति नारायण सिंह ने घाट पर हजारा दीप जलाकर देव दिवाली की विधिवत शुरुआत कराई थी। काशी सुमेरूपीठ के पीठाधीश्वर जगदगुरू शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानंद सरस्वती बताते हैं कि

पंचगंगा, दुर्गाघाट, बिन्दु माधव मंदिर की सीढ़ियों पर वर्षो से दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों को दीया जलाते देख नारायण गुरु (मां मंगला गौरी मंदिर के महंत) ने वर्ष 1984 में देव दीपावली की शुरुआत इन घाटों पर की थी। उनके प्रयास स्वरूप वर्ष 1985 से केन्द्रीय देव दिवाली समिति बनाकर इसे वृहद स्वरूप दिया गया।

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