भारत में अनेकों उपन्यासकार जन्में हैं लेकिन “मुंशी प्रेमचंद” जी के द्वारा लिखे गए उपन्यास आज इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुके हैं। हिंदुस्तान में आज़ादी के वक्त इन्होंने अपने लेखन से लोगों के अंदर अंग्रेजों से आज़ादी लेने की ललक जगाई जिसका नतीजा आज हम सबके सामने है।
बड़ी बात यह है कि अंग्रेज़ भी इनके द्वारा लिखित देशभक्ति लेखों से चिंतित हो चुके थे। बात करें इनके जीवन के बारे में तो इनका जन्म वाराणसी के “लमही” में एक समृद्ध परिवार में हुआ था जहाँ ये ज़मींदार थे। बचपन में इनका नाम “धनपत राय श्रीवास्तव” था। जब इनकी उम्र 8 साल हुई तो माता “आनंदी देवी” ने दुनिया का दामन छोड़ दिया था।
उसके बाद इनके पिता “अजैब राय” ने दूसरी शादी कर ली और यहाँ से मुंशी प्रेमचंद और इनकी दूसरी माता के बीच जो संबन्ध थे वह काफी खराब थे। बहरहाल, ये जो भी कहानियाँ लिखा करते थे वह काल्पनिक नहीं बल्कि असल जिंदगी से जुड़ी हुई होती थी और इनके द्वारा लिखी गई कहानी “बड़े घर की बेटी” में “आनंदी” का किरदार इनकी पहली माँ पर आधारित है।
लेखन की शुरुआत कैसे हुई?
इनकी कालेज की पढ़ाई “क्वींस कॉलेज” से हुई और पढ़ने में यह औसत छात्र थे। इनके पिता जी अपने कार्य में बहुत अधिक व्यस्त रहते थे। वहीं कम उम्र में ही इनकी माता का साथ छूट गया था। साथ ही दूसरी माता के साथ संबन्ध अच्छे थे नहीं और इनकी बहन की भी शादी हो चुकी थी।
ऐसे में ये बिल्कुल घर में अकेले पड़ गए थे क्योंकि इनके साथ ऐसा कोई व्यक्ति मौजूद नहीं था जिसके साथ ये अपना समय व्यतीत कर सकें। तभी इन्होंने सोचा कि वे अब से किताबें पढ़ना शुरू करेंगे तथा समय के साथ उन्होंने किताबें लिखना भी शुरू कर दिया और यहीं से होती है इनके लेखन की शुरुआत।
इसके बाद जब मुंशी प्रेमचंद जी की उम्र 15 साल हुई यानी वर्ष 1895 में इनकी शादी कर दी गई। लेकिन शादी के बाद पत्नी और दूसरी माँ के बीच काफी झगड़े हुआ करते थे जिसका नतीजा यह रहा कि प्रेमचंद और इनकी पत्नी के बीच संबन्ध बहुत बिगड़ने लगे और बाद में पत्नी इन्हें छोड़ कर अपने घर चली गईं।
इसके बाद प्रेमचंद जी ने “विधवा” से दूसरी शादी कर ली। उस वक्त समाज में ऐसा बहुत कम लोग ही किया करते थे और इनकी दूसरी शादी ने समाज को एक नई दिशा की ओर ले जाने का कार्य किया। बात करें इनके संघर्ष के बारे में तो 1897 में जब इनके पिता जी का देहांत होता है उसके बाद से घर के हालात ठीक नहीं थे।
दूसरी ओर कालेज में इनके प्रतिशत कम आए थे जिसकी वजह से इनको आगे की पढ़ाई करने के लिए हिन्दू कालेज में एडमिशन नहीं मिला और इसके बाद कुछ समय के लिए इन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। अब घर चलाने के लिए प्रेमचंद जी ने एक बच्चे को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया जिसके बदले में इन्हें 5 रुपए मिलते थे और इसमें से आधे से अधिक पैसा अपने में घर दे देते थे। तबेले में रहकर ये अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।
लेकिन इतनी मुश्किलों के बावजूद इन्होंने लिखना और किताबों को पढ़ना नहीं छोड़ा और कहा जाता है कि पढ़ाई कभी व्यर्थ नहीं जाती और इसी वजह से इनको बहराइच के सरकारी विद्यालय में एक “शिक्षक” की नौकरी लगी जिसमें इनको 20 रुपए मिलते थे और वक्त के हिसाब से यह बहुत बड़ी रकम हुआ करती था। लेकिन यहाँ से इनके बुरे दिनों का अंत होना शुरू हो जाता है।
मुंशी प्रेमचंद के लेखन की शुरुआत:
लेखन के क्षेत्र में इन्होंने सबसे पहले उर्दू भाषा में लिखना शुरू किया और बाद में हिन्दी भाषा में लिखना शुरू किया। देखते ही देखते इनको लिखने तथा पढ़ने का जुनून आ गया और साल 1906 में इनका पहला लघु उपन्यास “असरार-ए-मा आबिद” बाज़ार में आया और इसके बाद लगातार इनके उपन्यास बाज़ार में आते गए।
शुरुआत में इनके द्वारा लिखे गए उपन्यास तो अधिक चले नहीं लेकिन समय के साथ जब वे लिखने मे और निपुण हो गए तो एक के बाद एक इनके उपन्यास पसन्द किए जाने लगे। इसके बाद मुंशी प्रेमचंद जी उर्दू भाषी पत्रिका “ज़माना” से जुड़े और यहाँ काफी समय तक काम किया।
दूसरी तरफ पूरे भारत में आज़ादी पाने की जंग छिड़ी हुई थी। इस वजह से प्रेमचंद जी के विचार “गोपाल कृष्ण गोखले” से बिल्कुल भी नहीं मिलते थे क्योंकि ये नर्म दल में थे। यह अपना समर्थन गर्म दल को देते थे। वहीं इन्होंने अपनी छोड़ी हुई पढ़ाई दोबारा शुरू की और 1919 में इलाहाबाद विश्विविद्यालय से “बी•ए” करके अपनी पढ़ाई पूरी की और उसके चन्द दिनों बाद इन्हें “डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल” का पद दे दिया गया।
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अब 1920 में गांधी जी द्वारा शुरू किया गया “असहयोग आंदोलन”। इसमें गांधी जी ने स्पष्ट कह दिया कि अंग्रेजों द्वारा दी गई नौकरी तथा वस्तु सबका त्याग कर दो और उसके पश्चात ही प्रेमचंद जी ने अपनी नौकरी का त्याग कर दिया था। उसके बाद से इन्होंने अपना सारा जीवन लेखन में बिता दिया। बात करते हैं इनके द्वारा लिखे गये कुछ प्रमुख उपन्यास के बारे में।
नौकरी छोड़ने के बाद इनका सारा ध्यान उपन्यास को लिखने में रहता था। उन्हीं में से कुछ लघु उपन्यासों ने इतिहास में अपना नाम दर्ज करा लिया है जैसे गोदान, प्रतिज्ञा, निर्मला, ईदगाह इत्यादि। फिल्मों में भी इनके उपन्यास को लाया गया है जैसे ‘सत्यजीत रे’ द्वारा निर्मित “शतरंज के खिलाड़ी” इस फिल्म ने भारत में फिल्मों को बनाने के लिए नई दिशा देने का कार्य किया।
पत्रकारिता से जुड़े कुछ किस्से
लेखन के शौक की वजह से इन्होंने खुद की पत्रिका छापने का निर्णय लिया और 1923 बनारस में इन्होंने “सरस्वती प्रेस” के नाम से प्रिंटिंग प्रेस की शुरुआत की। मगर नतीजा यह रहा कि कुछ समय बाद ही प्रेमचंद जी को इसमें काफी घाटा सहन करना पड़ा। बाद में फिर से “जागरण” के नाम से पत्रिका निकाली और वह भी कुछ समय के बाद बन्द हो गई।
लेकिन इसी बीच इनके द्वारा लिखित उपन्यास “गबन” ने पूरे बाज़ार में तहलका मचा दिया और लोगों ने इसको बहुत ज़्यादा पसन्द किया। पत्रकारिता के अलावा इन्होंने बॉलीवुड में भी हाथ आज़माया था और 1934 में मुंबई आने के बाद इनको एक फिल्म के लिए स्क्रिप्ट लिखने का काम मिला।
इनके द्वारा लिखित पहली फिल्म “मजदूर” पर्दे पर आई मगर जनता का प्यार अधिक ना मिल सका। इसके बाद वह वापस बनारस चले गए लेकिन इन सब के बीच समय बीत रहा था और मुंशी प्रेमचंद जी की उम्र भी बढ़ रही थी। इसी वजह से वह अधिकतर बीमार रहने लगे थे और 8 अक्टूबर 1936 में भारत में इस शानदार युग की समाप्ति हुई।
-यशस्वी सिंह