राम जन्मभूमि (राम मंदिर)
राम मंदिर: अयोध्या के रामकोट मुहल्ले में एक टीले पर लगभग पाँच सौ साल पहले वर्ष 1528 से 1530 में बनी मस्जिद पर लगे शिलालेख और सरकारी दस्तावेज़ों के मुताबिक़ यह मस्जिद हमलावर मुग़ल बादशाह बाबर के आदेश पर उसके गवर्नर मीर बाक़ी ने बनवाई। हिन्दुओं की मान्यता है कि श्री राम का जन्म अयोध्या में हुआ था और उनके जन्मस्थान पर एक भव्य मन्दिर विराजमान था जिसे मुगल आक्रमणकारी बाबर ने तोड़कर वहाँ एक मस्जिद बना दी।
विवाद का प्रारंभिक चरण
1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद नवाबी शासन समाप्त होने पर ब्रिटिश क़ानून, शासन और न्याय व्यवस्था लागू हुई. माना जाता है कि इसी दरम्यान हिंदुओं ने मस्जिद के बाहरी हिस्से पर क़ब्ज़ा करके चबूतरा बना लिया और भजन-पूजा शुरू कर दी, जिसको लेकर वहाँ झगड़े होते रहते थे। बाबरी मस्जिद के एक कर्मचारी मौलवी मोहम्मद असग़र ने 30 नवंबर 1858 को लिखित शिकायत की कि हिंदू वैरागियों ने मस्जिद से सटाकर एक चबूतरा बना लिया है और मस्जिद की दीवारों पर राम-राम लिख दिया है।
शांति व्यवस्था क़ायम करने के लिए प्रशासन ने चबूतरे और मस्जिद के बीच दीवार बना दी लेकिन मुख्य दरवाज़ा एक ही रहा. इसके बाद भी मुसलमानों की तरफ़ से लगातार लिखित शिकायतें होती रहीं कि हिंदू वहाँ नमाज़ में बाधा डाल रहे हैं। अप्रैल 1883 में निर्मोही अखाड़ा ने डिप्टी कमिश्नर फ़ैज़ाबाद को अर्ज़ी देकर मंदिर बनाने की अनुमति माँगी, मगर मुस्लिम समुदाय की आपत्ति पर अर्ज़ी नामंज़ूर हो गई। इसी बीच मई 1883 में मुंशी राम लाल और राममुरारी राय बहादुर का लाहौर निवासी कारिंदा गुरमुख सिंह पंजाबी वहाँ पत्थर वग़ैरह सामग्री लेकर आ गया और प्रशासन से मंदिर बनाने की अनुमति माँगी, मगर डिप्टी कमिश्नर ने वहाँ से पत्थर हटवा दिए।
इसमें दावा किया गया कि वह इस ज़मीन के मालिक हैं और उनका मौक़े पर क़ब्ज़ा है. सरकारी वक़ील ने जवाब में कहा कि वादी को चबूतरे से हटाया नहीं गया है, इसलिए मुक़दमे का कोई कारण नहीं बनता। मोहम्मद असग़र ने अपनी आपत्ति में कहा कि प्रशासन बार-बार मंदिर बनाने से रोक चुका है।
शिया-सुन्नी विवाद
1936 में मुसलमानों के दो समुदायों शिया और सुन्नी के बीच इस बात पर क़ानूनी विवाद उठ गया कि मस्जिद किसकी है. वक़्फ़ कमिश्नर ने इस पर जाँच बैठाई. मस्जिद के मुतवल्ली यानी मैनेजर मोहम्मद ज़की का दावा था कि मीर बाक़ी शिया था, इसलिए यह शिया मस्जिद हुई। लेकिन ज़िला वक़्फ़ कमिश्नर मजीद ने 8 फ़रवरी 1941 को अपनी रिपोर्ट में कहा कि मस्जिद की स्थापना करने वाला बादशाह सुन्नी था और उसके इमाम तथा नमाज़ पढ़ने वाले सुन्नी हैं, इसलिए यह सुन्नी मस्जिद हुई।
इसके बाद शिया वक़्फ़ बोर्ड ने सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड के ख़िलाफ़ फ़ैज़ाबाद के सिविल जज की कोर्ट में मुक़दमा कर दिया. सिविल जज एसए अहसान ने 30 मार्च 1946 को शिया समुदाय का दावा ख़ारिज कर दिया. यह मुक़दमा इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि आज भी शिया समुदाय के कुछ नेता इसे अपनी मस्जिद बताते हुए मंदिर निर्माण के लिए ज़मीन देने की बात करते हैं।
मस्जिद के अंदर मूर्तियाँ
हिंदू वैरागियों ने अगले महीने 24 नवंबर से मस्जिद के सामने क़ब्रिस्तान को साफ़ करके वहाँ यज्ञ और रामायण पाठ शुरू कर दिया जिसमें काफ़ी भीड़ जुटी। झगड़ा बढ़ता देखकर वहाँ एक पुलिस चौकी बनाकर सुरक्षा में अर्धसैनिक बल पीएसी लगा दी गई। पीएसी तैनात होने के बावजूद 22-23 दिसंबर 1949 की रात अभय रामदास और उनके साथियों ने दीवार फाँदकर राम-जानकी और लक्ष्मण की मूर्तियाँ मस्जिद के अंदर रख दीं और यह प्रचार किया कि भगवान राम ने वहाँ प्रकट होकर अपने जन्मस्थान पर वापस क़ब्ज़ा प्राप्त कर लिया है।
मुस्लिम समुदाय के लोग शुक्रवार सुबह की नमाज़ के लिए आए मगर प्रशासन ने उनसे कुछ दिन की मोहलत माँगकर उन्हें वापस कर दिया। कहा जाता है कि अभय राम की इस योजना को गुप्त रूप से कलेक्टर नायर का आशीर्वाद प्राप्त था। वह सुबह मौक़े पर आए तो भी अतिक्रमण हटवाने की कोशिश नहीं की, बल्कि क़ब्ज़े को रिकॉर्ड पर लाकर पुख़्ता कर दिया। सिपाही माता प्रसाद की सूचना पर अयोध्या कोतवाली के इंचार्ज रामदेव दुबे ने एक मुक़दमा क़ायम किया, जिसमें कहा गया कि पचास-साठ लोगों ने दीवार फाँदकर मस्जिद का ताला तोड़ा, मूर्तियाँ रखीं और जगह-जगह देवी-देवताओं के चित्र बना दिए। रपट में यह भी कहा गया कि इस तरह बलवा करके मस्जिद को अपवित्र कर दिया गया।
सिविल मुक़दमे
16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने सिविल जज की अदालत में, सरकार, ज़हूर अहमद और अन्य मुसलमानों के खिलाफ़ मुक़दमा दायर कर कहा कि जन्मभूमि पर स्थापित श्री भगवान राम और अन्य मूर्तियों को हटाया न जाए और उन्हें दर्शन और पूजा के लिए जाने से रोका न जाए. सिविल जज ने उसी दिन यह स्थागनादेश जारी कर दिया, जिसे बाद में मामूली संशोधनों के साथ ज़िला जज और हाईकोर्ट ने भी अनुमोदित कर दिया.स्थगनादेश को इलाहाबाद हाइकोर्ट में चुनौती दी गई जिससे फ़ाइल पाँच साल वहाँ पड़ी रही।
नए जिला मजिस्ट्रेट जेएन उग्रा ने सिविल कोर्ट में अपने पहले जवाबी हलफ़नामे में कहा, “विवादित संपत्ति बाबरी मस्जिद के नाम से जानी जाती है और मुसलमान इसे लंबे समय से नमाज़ के लिए इस्तेमाल करते रहे हैं। इसे राम चन्द्र जी के मंदिर (राम मंदिर) के रूप में नहीं इस्तेमाल किया जाता था। 22 दिसंबर की रात वहाँ चोरी-छिपे और ग़लत तरीक़े से श्री रामचंद्र जी की मूर्तियाँ रख दी गई थीं।” कुछ दिनों बाद दिगंबर अखाड़ा के महंत रामचंद्र परमहंस ने भी विशारद जैसा एक और सिविल केस दायर किया। परमहंस मूर्तियाँ रखने वालों में से एक थे और बाद में विश्व हिंदू परिषद के आंदोलन में उनकी बड़ी भूमिका थी. इस मुक़दमे में भी मूर्तियाँ न हटाने और पूजा जारी रखने का आदेश हुआ।
मंदिर-मस्जिद की राजनीति
इमरजेंसी के बाद 1977 में जनसंघ और अन्य विपक्षी दलों के विलय से बनी जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी को सत्ता से बेदखल कर दिया, लेकिन इनकी आपसी फूट से सरकार तीन साल भी नहीं पूरे नहीं कर पाई. इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में वापस आ गईं। संघ परिवार ने मंथन शुरू किया कि अगले चुनाव से पहले हिंदुओं को कैसे राजनीतिक रूप से एकजुट करें? हिंदुओं के तीन सबसे प्रमुख आराध्य– राम, कृष्ण और शिव से जुड़े स्थानों अयोध्या, मथुरा और काशी की मस्जिदों को केंद्र बनाकर आंदोलन छेड़ने की रणनीति बनी। 7-8 अप्रैल को दिल्ली के विज्ञान भवन में धर्म संसद का आयोजन कर तीनों धर्म स्थानों की मुक्ति का प्रस्ताव पास किया गया। चूँकि काशी और मथुरा में स्थानीय समझौते से मस्जिद से सटकर राम मंदिर बन चुके हैं इसलिए पहले अयोध्या पर फ़ोकस करने का निर्णय किया गया।
बाबरी मस्जिद गिराई गई
दिसंबर 1992 में फिर कारसेवा का ऐलान हुआ। कल्याण सरकार और विश्व हिंदू परिषद नेताओं ने सुप्रीम कोर्ट में वादा किया कि सांकेतिक कारसेवा में मस्जिद को क्षति नहीं होगी। कल्याण सिंह ने पुलिस को बल प्रयोग न करने की हिदायत दी. कल्याण सिंह ने स्थानीय प्रशासन को केंद्रीय बलों की सहायता भी नहीं लेने दी। उसके बाद छह दिसंबर को जो हुआ वह इतिहास में दर्ज हो चुका है। आडवाणी, जोशी और सिंघल जैसे शीर्ष नेताओं, सुप्रीम कोर्ट के ऑब्ज़र्वर ज़िला जज तेजशंकर और पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में लाखों कारसेवकों ने छह दिसंबर को मस्जिद की एक-एक ईंट उखाड़कर मलवे के ऊपर एक अस्थायी मंदिर बना दिया।
वहाँ पहले की तरह रिसीवर की देखरेख में दूर से दर्शन-पूजन शुरू हो गया. मुसलमानों ने केंद्र सरकार पर मिलीभगत और निष्क्रियता का आरोप लगाया पर प्रधानमंत्री ने सफ़ाई दी कि संविधान के अनुसार शांति व्यवस्था राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी थी और उन्होंने क़ानून के दायरे में रहकर जो हो सकता है किया। उन्होंने मस्जिद के पुनर्निर्माण का भरोसा भी दिया।
देश भर में सांप्रदायिक दंगे भड़के गए
मस्जिद ध्वस्त होने के कुछ दिनों बाद हाईकोर्ट ने कल्याण सरकार की ज़मीन अधिग्रहण की कार्रवाई को ग़ैरक़ानूनी क़रार दे दिया। जनवरी 1993 में केंद्र सरकार ने मसले के स्थायी समाधान के लिए संसद से क़ानून बनाकर विवादित परिसर और आसपास की लगभग 67 एकड़ ज़मीन को अधिग्रहीत कर लिया। हाईकोर्ट में चल रहे मुक़दमे समाप्त करके सुप्रीम कोर्ट से राय माँगी गई कि क्या बाबरी मस्जिद का निर्माण कोई पुराना हिंदू मंदिर तोड़कर किया गया था यानी विवाद को इसी भूमि तक सीमित कर दिया गया।
इस क़ानून की मंशा थी कि कोर्ट जिसके पक्ष में फ़ैसला देगी उसे अपना धर्म स्थान बनाने के लिए मुख्य परिसर दिया जाएगा और थोड़ा हटकर दूसरे पक्ष को ज़मीन दी जाएगी। दोनों धर्म स्थलों के लिए अलग ट्रस्ट बनेंगे। यात्री सुविधाओं का भी निर्माण होगा. फ़ैज़ाबाद के कमिश्नर को केंद्र सरकार की ओर से रिसीवर नियुक्त किया गया।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया कि क्या वहाँ मस्जिद से पहले कोई हिंदू मंदिर था। जजमेंट में कहा गया कि अदालत इस तथ्य का पता लगाने में सक्षम नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट में चल रहे मुक़दमों को भी बहाल कर दिया, जिससे दोनों पक्ष न्यायिक प्रक्रिया से विवाद निबटा सकें।
हाईकोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से बाबरी मस्जिद और राम चबूतरे के नीचे खुदाई करवाई जिसमें काफ़ी समय लगा। रिपोर्ट में कहा गया कि नीचे कुछ ऐसे निर्माण मिले हैं जो उत्तर भारत के मंदिरों जैसे हैं। इसके आधार पर हिंदू पक्ष ने नीचे पुराना राम मंदिर होने का दावा किया, जबकि अन्य इतिहासकारों ने इस निष्कर्ष को ग़लत बताया।
उच्च न्यायालय का फैसला- 2010
लंबी सुनवाई, गवाही और दस्तावेज़ी सबूतों के बाद, 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने निर्णय सुनाया जिसमें विवादित भूमि को रामजन्मभूमि घोषित किया गया। न्यायालय ने बहुमत से निर्णय दिया कि विवादित भूमि जिसे रामजन्मभूमि माना जाता रहा है, उसे हिंदू गुटों को दे दिया जाए। न्यायालय ने यह भी कहा कि वहाँ से रामलला की प्रतिमा को नहीं हटाया जाएगा।
न्यायालय ने यह भी पाया कि चूंकि सीता रसोई और राम चबूतरा आदि कुछ भागों पर निर्मोही अखाड़े का भी कब्ज़ा रहा है इसलिए यह हिस्सा निर्माही अखाड़े के पास ही रहेगा। दो न्यायधीधों ने यह निर्णय भी दिया कि इस भूमि के कुछ भागों पर मुसलमान प्रार्थना करते रहे हैं इसलिए विवादित भूमि का एक तिहाई हिस्सा मुसलमान गुटों दे दिया जाए। लेकिन हिंदू और मुस्लिम दोनों ही पक्षों ने इस निर्णय को मानने से अस्वीकार करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
गंदी राजनीति का भाव
उच्चतम न्यायालय ने 7 वर्ष बाद निर्णय लिया कि 11 अगस्त 2017 से तीन न्यायधीशों की पीठ इस विवाद की सुनवाई प्रतिदिन करेगी। सुनवाई से ठीक पहले शिया वक्फ बोर्ड ने न्यायालय में याचिका लगाकर विवाद में पक्षकार होने का दावा किया और 70 वर्ष बाद 30 मार्च 1946 के ट्रायल कोर्ट के फैसले को चुनौती दी जिसमें मस्जिद को सुन्नी वक्फ बोर्ड की सम्पत्ति घोषित अर दिया गया था।
2011 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में इस विवाद से जुड़ी सभी याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की। 6 अगस्त 2019 से सुप्रीम कोर्ट में इस विवाद पर लगातार 40 दिन तक सुनवाई हुई। 16 अक्टूबर 2019 को हिंदू-मुस्लिम पक्ष की दलीलें सुनने के बाद पांच सदस्यीय संविधान बेंच ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।
सर्वोच्च न्यायालय हिन्दुओं को पवित्र दृष्टि देता है
9 नवंबर, 2019 को, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले फैसले को हटा दिया और कहा कि भूमि सरकार के कर रिकॉर्ड के अनुसार है। इसने हिंदू मंदिर के निर्माण के लिए भूमि को एक ट्रस्ट को सौंपने का आदेश दिया। इसने सरकार को मस्जिद बनाने के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को वैकल्पिक 5 एकड़ जमीन देने का भी आदेश दिया।
तकरीबन 28 साल बाद रामलला टेंट से निकलर फाइबर के मंदिर में शिफ्ट हुए। राम मंदिर का भूमि पूजन कार्यक्रम। पीएम नरेंद्र मोदी, आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और साधु-संतों समेत 175 लोगों को न्योता। अयोध्या पहुंचकर हनुमानगढ़ी में सबसे पहले पीएम मोदी ने किया दर्शन। राम मंदिर के भूमि पूजन कार्यक्रम में शामिल।
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